Friday, 4 March 2016

उपसंहार

         उपसंहार :-

भारत के भाग्य में शुरू से ही फूट रही है, इस फूट के कारण कितने ही घर बर्बाद हो गए थे और और हो रहे है, इस फूट की आग में पृथ्वीराज भी नहीं बच पाय, पृथ्वीराज के अध्यापतन का यह पहला कारण था, इस फूट ने ऐसा भयानक आकार धारण कर लिया था की आपस में विद्रोह ने कितना ही भयानक धूम मचाई और कलह को जन्म दिया, उनके वीरता से कई राजा बहुत दुखित हुए थे, और उन्हें नीचा दिखने में लगे रहते थे,जरा जरा सी बातें में तलवार निकाल लेना और बात बात पर लोगो को मार गिराना पृथ्वीराज को अध्य्पतन की ओर धकेलने लगा था. ये सब बातें आपको पृथ्वीराज के पिछले भागों को पढ़ने से पता चल ही गया होगा. पृथ्वीराज ने तो अपना समाराज्य बढ़ाने के लिए कई राज्यों के राजकुमारी से शादी किया ताकि उन राज्यों के राजाओं को पृथ्वीराज की गुलामी क़ुबूल करनी पड़े,ये सामराज्य बढ़ाने का बहुत साधारण सा तरीका था, पर ये उनके विपरीत ही हुआ, कई राज्यों से लड़ने के बाद जीत तो उनकी ही हुई पर ये जीत उन्हें बहुत महँगी पड़ी, उनके सभी नामी योद्धा मारे जाने लगे. अगर क्षत्रिय जाती में बहुपत्नी का चलन न होता तो पृथ्वीराज के कई योद्धा जीवित रहते और मुहम्मद गौरी कभी भी अपना सामराज्य भारत पर नहीं फैला पाता. पृथ्वीराज ने ग्यारह विवाह किये और कुछ विवाह को छोड़ दे तो ऐसा कोई विवाह नहीं है जिसमे दो चार हज़ार मनुष्यों की प्राणहुती न हुई हो. ये पृथ्वीराज के अध्यापतन का दूसरा कारण था. पृथ्वीराज के अध्यापतन का तीसरा कारण था की पृथ्वीराज जितने ही वीर थे वे उतने ही अन्दर से ह्रदय के कमजोर थे, दया भाव उनमे कूट कूट कर भरे हुए थे, मुहम्मद गौरी के मगरमच्छ के आंसू को समझ नहीं पाए और बार बार उन्हें माफ़ करते चले गए. मानता हूँ की शास्त्र में लिखा है की क्षत्रिये धरम के अनुसार झुके गर्दन पर तलवार नहीं उठाया जाता है, या फिर किसी निहत्थे पर वार नहीं किया जाता है ये गुण तो पृथ्वीराज को याद थे पर शास्त्र के ये बात उन्हें क्यों याद नहीं आये की यदि सांप को मारा जाए तो उसका सर अच्छी तरह से कुचल दिया जाता है उसे अधमरा नहीं छोड़ा जाता वरना वो वापस अवश्य ही काटता है. अध्यापतन का चौथा कारण था की एक वैश्या के फेर में पड़कर आपने वीर सेनापति कैमाश को मार देना बिलकुल ही निराशापूर्ण था.उन्होंने बिना कारण ही चामुंडराय को कारगार में डलवा दिया. इसके अतिरिक्त पृथ्वीराज का ठीक तरीके से राज शाषन न करना और भी कितने सारे कारण थे जिनके कारण उन्हें अपने देश रक्षकों से हाथ धोना पड़ा था. यहाँ तक जो होना था वो तो हो ही गया,पृथ्वीराज के कितने ही वीर संयोगिता हरण में मारे जा चुके थे, पर उस समय भी भारत की भूमि आज की जैसे वीर शुन्य नहीं हुई थी, इतना होने के ब्बव्जूद पृथ्वीराज के पास और भी कितने ही वीर बाकि थे और उनके कारण भारत स्वतंत्रता की सांसे ले रहा था. यदि पृथ्वीराज संयोगिता को लाने के बाद एकदम से उनके प्रेम जाल में न फँसकर राज्य के काम को अच्छी तरह से देखते और राज्य का शाषण किसी और को न दे खुद ही सँभालते और संयोगिता की पास महल में न विराजते तब उनकी हार कभी भी संभव न थी, एक तरह से पृथ्वीराज ने खुद ही अपनी पैर में कुल्हाड़ी मार लिया था, वरन पृथ्वीराज को हरा पाना गौरी के वश में कभी न था. और पृथ्वीराज ही क्यों सभी राजाओं में यही बात उस समय घुस गयी थी जिसके कारण भारत को परतंत्रता का मुंह देखना पड़ा.
पृथ्वीराज का अंत हुआ और इसके साथ ही हिन्दू साम्राज्य का भी अंत हुआ. और समस्त पिथोरागढ़ शोक में डूब गया.सभी को मालूम हो गया की अब दिल्ली में शत्रु किसी भी वक़्त अआते होगे. पृथ्वीराज की मौत की खबर सुनते ही संयोगिता और अनके अन्य रानियों ने सती का राह अपनाया, इधर पृथ्वीराज के पुत्र रेणु सिंह ने मुसलमानों से लड़ता हुआ वीर गतो को प्राप्त किया, और समस्त भारत परतंत्रता की जंजीर में बांध कर रह गया. अन्य कई मुसलमानों की सेना द्वारा दिल्ली लूटी जाने लगी.नगर निवासी के कत्ल किये जाने लगे और कितने ही बेड़ियों में बाढ़ दिए गए. दिल्ली नगरी को स्मशान घाट बना दिया गया. अनेक मुसलमान शाशकों के भारत आने का मार्ग खुल गया था क्योंकि अब उन्हें यहाँ रोकने वाला कोई न था.अजमेर,दिल्ली और कन्नोज को लूटने की बाद मुसलमानों ने बनारस को लूटा,और इस तरह भारत के कितने ही प्रदेश मुसलमानों के अधीन हो गया. इन घटनाओं को ध्यान से देखने पर मालूम होता है की एक अकेला पृथ्वीराज ही भारत पर मुसलमान सामराज्य स्थापित होने के प्रधान बाधक थे. उनकी ही वीरता,धीरता,युद्धनीति,के कारण इतने समय तक भारत में यवन का शासन स्थापीत नहीं हो पाता था. क्योंकि उनकी मृत्यु होते ही क्रमशः सारे राजा का अस्तित्व ख़त्म होने लगा.

अध्यपतन


                                                     अध्यपतन:-

जब पृथ्वीराज संयोगिता को भगा कर दिल्ली ले आये तब वे एकदम से संयोगितामय हो गए,वे उनके प्रेम में बिलकुल ही मुग्ध हो गए,उनके सौन्दर्य जाल में फंसकर पृथ्वीराज ने राज्य का निरिक्षण छोड़ दिया, दरबार में आना जाना छोड़ दिया, अपने वीरों के साथ बातचीत बंद कर दी और दिन भर संयोगिता के साथ महल में रहने लगे, प्रजा अपने राजा की दर्शन को न पाकर हाहाकार मचने लगी. राज्य का भर जैतसिंह को मिला था. हालाँकि जैत सिंह एक बहदूर मनुष्य थे पर इससे क्या होता है जब राज्य का राजा को ही अपने राज्य का हाल लेने का फुरसत नहीं है. परन्तु पृथ्वीराज को इन सबसे कोई मतलब न था, कवी चन्द्र कहते है की इस समय पृथ्वीराज बिलकुल ही कर्तव्यहीन हो गए थे. गौरी तो हमेशा ससे ही अपने अपमान का बदला लेने के लिए तत्पर रहता था, उसके दूत भेष बदल बदल कर दिल्ली नगरी में घूमा करते थे, वे हर समय का खबर अपने सुलतान के पास पहुंचाते थे. गौरी को ये समाचार बार बार मिल रही थी की इस समय पृथ्वीराज अपने राज्य का रक्षा में दंचित नहीं है, उनके राज्य में स्त्रियों की प्रधानता हुई जा रही है, और उनके कई नामी सरदार और सामंत मारे जा चुके है.मुहम्मद गौरी ने तो दरबार में ये भी कह दिया था की जब से मेरी ये हार हुई है तब से मैं ठीक से सोया नहीं हूँ., मैं हमेशा से इसी चिंता में लगा रहता हूँ की पृथ्वीराज से अपनी हार का बदला कैसे लिया जाय. दिल्ली की खबर को स्सुनकर उसने सैनिको को एकत्र करना शुरू कर दिया, थोड़े ही समय में उसने एक बड़ी सेना जुटा कर दिल्ली की ओर चल दिया.जयचंद भी इस बार मुहम्मद गौरी का साथ दिया, भारत वश का एक मात्र राजा जयचंद ही था जिसने यवनी का साथ दिया था अपने ही देश के राजा के खिलाफ, ये समय भारत वश के लिए बहुत ही दुखित कर देने वाला था, भारत का एक मात्र राजा जो उस यवनी को रोक सकता था संयोगिता की प्रेम जाल में फंसा था, और भारत में काल बनकर गौरी की सेना बरही आ रही थी ऐसे में वहां की प्रजा और सामंत घबराते नहीं तो और क्या करते.बहुत सारे पडोसी राजा ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर उनकी सुनता कौन है. यदि कोई समाचार भेजता तो वो समाचार पृथ्वीराज तक पहुँचने भी न पाता था.और भारत वश को इस आध्यापत में डालने का काम पृथ्वीराज के प्रेम प्रसंग ने कर दिया था. सामंत उन्हें पत्र भेज भेज कर कई तरह से समझाने की कोशिश करते, कई सामंतों ने ये प्रयत्न किया की पत्र उनके पास तक पहुंच जाए, पर रहस्यमयी तरीके से पत्र बीच में ही गायब हो जाते.फिर चंदरबरदाई ने उन्हें एक पुर्जा भेजा जिसमे लिखा था की तुम तो महल में यहाँ आनंद कर रहे हो पर मुहम्मद गौरी तुमपर आक्रमण करने यहाँ आ रहा है, पृथ्वीराज ने वो पुर्जा पढ़ा भी लेकिन झल्ला कर उसे फाड़ कर फेंक दिया और हतास होकर बैठ गए, क्योंकि उन्होंने एक दिन पहले ही भयानक स्वपन्न देखा था जो की उनकी पतन का सूचना दे रहा था. धीरे धीरे पृथ्वीराज की विलासिता का समाचार रावल के समरसिंह तक पहुँच गया. ठीक उसी समय समर सिंह ने भी एक भयानक सपना देखा था जिससे उन्हें यकींन हो गया था की भारत का पतन का समय आ चूका है.इसलिए जैसे ही उन्होंने दिल्ली का समाचार सुना वे स्वयं राज गद्दी अपने पुत्र को सौंप कर दिल्ली की ओर चल दिए.वे अपने साथ एक बहुत ही बड़ी विशाल सेना भी लेकर आये क्योंकि उन्हें पता चल गया था की गौरी भारत पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है. जब समर सिंह दिल्ली आये तब उनकी आगवानी कौन करता पृथ्वीराज तो महल में थे,तब संयोगिता ने आदमी भेज कर उनका आदर सत्कार करवाया था. उनके आने के कई दिन के बाद पृथ्वीराज को समर सिंह के आने की खबर मिली. वे पहले तो उनसे मिलने गए फिर उन्होंने समर सिंह को विदाई देनी चाही.परन्तु समर सिंह हठ कर के रह गए. यदि कोई दूसरा राजा होता तो अपना अपमान समझ कर चला जाता लेकिन समर सिंह दूरदर्शी,बुद्धिमान,और सहनशील थे.उन्होंने अपने अपमान का चिंता छोड़ देश के हित के बारे में सोचा. जब वे पृथ्वीराज से मिलने के लिए गए तब उन्होंने बड़े ही मीठे शब्दों में बहुत कुछ समझाया, आश्वासन दिया. पर पृथ्वीराज इस समय भी हताश से हो रहे थे, चन्द्र का पत्र,स्वप्न, समर सिंह का आगमन,और ठीक उसी समय मुहम्मद गौरी का आक्रमण ये सभी बातें पृथ्वीराज को दहला रही थी. पृथ्वीराज अब अपनी करनी पर पछताने लगे थे, परन्तु अब क्या हो सकता है,कुछ भी हो समर सिंह ने तरह तरह से पृथ्वीराज को लज्जित किया. पृथ्वीराज ने समर सिंह के कहे अनुसार ही कार्य करना सही समझा. आपको याद होगा की पृथ्वीराज ने चामुंडराय को कैद कर रखा था, समरसिंह ने सबसे पहले चामुंड राय को छोड़ देने को कहा. पृथ्वीराज ने उनकी आज्ञा मान ली और चामुंड राय को छोड़ने के लिए अपने सामंतों को भेज दिया, वे चामुंडराय कके पास संक्कोच वश नहीं जा पाए, पर जब चामुंडराय नहीं माना तब पृथ्वीराज और समर सिंह स्वयं ही उनके पास गए, पृथ्वीराज ने अपने कमर की तलवार से उनके बेड़ियों को काट दिया और वो तलवार उन्हें दे दिया, इसके साथ ही उन्होंने चामुंडराय से अपने किये के लिए माफ़ी भी मांगी,इसपर चामुंडराय बहुत खुश हो गया.चामुंडराय के रिहा होने के कारण सारी दिल्ली नगरी खुस हो गयी. दुसरे ही दिन दरबार लगा और विचार होने लगा की क्या करना चाहिए, सभों की सलाह से विचार ये निकला की दिल्ली का शासन भार पृथ्वीराज के पुत्र रेनुसिंह को सौंपकर युद्ध के लिए निकल जाना चाहिए. लेकिन जब समय विपरीत होता है तब सबकुछ विपरीत ही हो जाता है.इस संकट में पृथ्वीराज का एक सामंत हहुलिराय आपस की वाद विवाद के कारण शत्रु के पक्ष से जा मिला. हिन्दुओं ने सदा से ही धर्म युद्ध किया है उन्होंने कभी भी छल युद्ध नहीं किया है,इसी धर्म युद्ध के कारण पृथ्वीराज और समर सिंह अपनी सेना समेत तारायन की ओर चल दिए. वीर पत्नी संयोगिता ने आज अपने हाथों से अपने पति पृथ्वीराज को रण से सुसज्जित किया. यद्यपि उसका ह्रदय काँप रहा था,उसे स्पष्ट मालूम था की उनके पति सदा के लिया जा रहे है. उसने अपनी अधीरता किसी भी प्रकार से पृथ्वीराज को नहीं दिखाई,उसे पूरा विश्वास था की जीत आये तो ठीक वरना हम दोनों सूर्यलोक में तो अवश्य ही मिलेंगे. संयोगिता से विदा लेकर पृथ्वीराज रणक्षेत्र की ओर चल पड़े.पानीपत के मैदान में ही गौरी को रोकने का विचार ठहरा. इधर से पृथ्वीराज अपनी सेना लिए आगे बढ़े उधर से मुहम्मद गौरी आया पहुंचा.दोनों की सेना तेरायन के युद्ध स्थल में जा मिली. इस समय मुहम्मद गौरी ने फिर चाल से काम लिया, उसने अपने एक दूत को भेज कर कहा की अगर तुम इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लो और अपने राज्य का कुछ अंश दे दो तो हम तुम्हे माफ़ कर सकते है. इस पर पृथ्वीराज ने बीते हुए बातों और पराजय को फिर से याद करने को कहा और लौट जाने की बात कही.उसने दूत को बहुत ही गर्वित अक्षरों में लिखा एक पत्र देकर उतर दिया. तब उसने धोखा देने के लिए ये उतर लिख कर भेजवा दिया की मैं तो केवल सेनापति हूँ मेरा भाई राजा है.अतः उनकी आज्ञा का पालन करने कके लिए मैं बाध्य हूँ.आप मुझे कुछ समय दे ताकि मैं उनसे लौटने का आदेश मंगवा सकूं.उनकी आज्ञा की बगैर हम लौट नहीं सकते है. जब तक उतर न आये तबतक युद्ध स्थगित रहे.इस उतर पर समरसिंह को विश्वास नहीं हुआ. इसलिए उन्होंने उसकी सेना को हमेशा प्रस्तुत रहने का आज्ञा दिया.सेना प्रस्तुत भी हुई, लेकिन शाहबुद्दीन गौरी की ओर से आक्रमण नहीं हुआ. राजपूत शत्रु बिना सावधान किये आक्रमण नहीं करते है बहुत दिनों से यही निति चली आ रही है इन्ही नीतियों के कारण राजपूतों को कई बार हार का सामना भी करना पड़ा है. इस युद्ध में पृथ्वीराज के तरफ से तिरासी हज़ार थी और मुहम्मद गौरी की ओर से दस लाख की एक विशाल सेना थी.रासो में एक कथन दिया गया है की जब कविचन्द्र ने हहुलीराय जो की पृथ्वीराज का एक सामंत था उसे समझाने के लिए गया था तब उसने कवी चन्द्र को जालपा देवी के मंदिर में कैद कर दिया था. यह युद्ध सन 1192 में हुई थी. दोनों की सेना नदी के तट पर अपने अपने स्वामियों की आज्ञा का इंतज़ार कर रही थी., समर सिंह घूम घूम कर अपने सेना में जोश बढ़ाने का काम करने लगे थे.रात हो गयी अब धीरे राजपूत सेना को मुहम्मद गौरी के भेजे हुए पत्र पर विश्वास हो गया था की यवनी सेना अभी आक्रमण नहीं करेगी. राजपूत सेना निश्चिंत होकर अपने अपने शिविरों में जाने लगी थी. गौरी ने यहाँ पर एक और चाल चली की उसने अपनी ओर आग को जला रहने दिया ताकि हिन्दुओं को लगे की गौरी की सेना वहीँ है और वो अभी आक्रमण नहीं करेगी, इसी बीच गौरी ने अपनी सेना को चुपचाप तैयार होने के लिए कह दिया. उसने अपनी सेना को अच्छी तरह प्रस्तुत कर लिया और एकदम सुबह जब रात सबसे ज्यादा घनी होती है उस समय सभी हिन्दू सेना निद्रा की गोद में थे, और कुछ नित्यक्रिया का काम कर रहे थे उस समय यवनी ने एकाएक आक्रमण कर दिया था, यद्यपि उसी अवस्था में हिन्दू सेना भी युद्ध के लिए तेयार हो गयी. धीरे धीरे घोर युद्ध होनी लगा, महाराज पृथ्वीराज और समर सिंह घोड़े में बैठकर अपनी सेना का निरिक्षण करते हुए इधर उधर चक्कर लगाने लगे. थोड़ी ही देर में बहुत ही घोर युद्ध होने लगा, कोई भी न अपना और पराया दिखने लगा. युद्ध करते करते हिन्दुओं की सेना का बल घटने लगा. युद्ध करते करते पृथ्वीराज पूरी तरह से शत्रुओं के बीच जा फंसे वहां से निकलना असंभव सा लगने लगा,समर सिंह पृथ्वीराज चौहान और वीर हिन्दुओं ने शेर की तरह मुसलमान सेना में टूट पड़े, पृथ्वीराज ने अकेले ही मुसलमानों के दांत खट्टे करने लगे पर इस बार मुहम्मद गौरी एक विशाल सेना को लेकर आया था, पृथ्वीराज चौहान मुसलमानों को एक एक कर के काटते गए और वो अपनी स्वामि की आज्ञा पाकर अपने प्राण देते गए, पृथ्वीराज इतनी बुरी तरह घिर गए थे की वहां से निकल पाना संभव न था, इसे देखकर जैतसिंह अपना घोडा लिए वहां आ पहुंचे और चालाकी से पृथ्वीराज के माथे का छत्र उतार कर अपने माथे में रख लिया, जैत सिंह ने भी बड़ी वीरता पुर्वक युद्ध की और पृथ्वीराज समझ कर यवनी ने उन्हें मार डाला, इधर पृथ्वीराज यवनी सेना से अकेले जूझ रहे थे उनकी मदद करने वाला कोई न था. आज के युद्ध में गुरुराम भी युद्ध करते करते वीरगति को प्राप्त किये, दोपहर होते होते चामुंडराय भी वीर गति को प्राप्त कर लिए. आज के युद्ध में राजपूतों ने अपनी प्राणों की ममता को छोड़ कर युद्ध करने लगे थे. उनके प्रक्रम को देखकर मुसलमान सेना भी उनकी लोहा मान लिया था, पर मुसलमान सेना ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. आज का युद्ध में भारत हमेशा के लिए परतंत्रता की जंजीर में बंधने वाला था शायद इसलिए समरसिंह भी लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त कर गए. इधर पृथ्वीराज चौहान अब अकेले ही दुश्मनों से लड़ाई कर रहे थे उनके साथ अब केवल थोड़ी बहुत हिन्दू सेना ही बच गयी थी, उनकी शेर सी गर्जन और तलवार की खन खन सुनकर ही दुश्मनों के होश उड़ने लगे थे पर समरसिंह के मौत के बाद वो भी हताश होने लगे. पृथ्वीराज बिना रुके ही लगातार युद्ध किये जा रहे थे संध्या हो चुकी थी लेकिन आज पृथ्वीराज को रोकना उन दस लाख सेना को भी भारी पड़ रहा था, लेकिन आज का दिन पृथ्वीराज का नहीं था, वो इस तरह से चारों ओर घिर गए थे की उनका जीवित बच पाना बहुत मुस्किल हो गया था, लेकिन वो हार नहीं मानने वालों में से थे, दिन भर की थकान के बाद वो अब थकने लगे थे और कई सारे दुश्मनों की चोट खा कर वो घायल हो गए, मुहम्मद गौरी ने तुरंत उन्हें पकड़ लेने का आदेश दे दिया. इस तरह से भारत का सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो गया. अब गौरी ने पृथ्वीराज को पकड़ कर गजनी ले आया और उन्हें कैदखाने में डाल दिया. युद्ध के खत्म होते ही गौरी ने जयचंद और गौरी का सामना चंदवर नामक स्थान में हो गया और जयचंद को मार कन्नोज पर अधिकार कर लिया और फिर दिल्ली के कई भागों पर भी अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया. पृथ्वीराज ने अपने छुटकारे के लिए पहले तो बहुत उपाय किये कई बार वो वहां से भागना चाहे पर वे असफल हो गए. अंत में उन्होंने भोजन को ही त्याग दिया. शाहबुद्दीन उसे समझाने के लिए खुद ही उनके पास गया पर शाहबुद्दीन को देखते ही उनकी आंखे लाल हो गयी, और उसे देखकर कटु वाक्य कहने लगे,उन्होंने सहाबुद्दीन को बीते हुए पल को याद कराया की किस तरह से तुमने मेरे पैर में गिर कर माफ़ी मांगी और मैंने तुम्हे माफ़ किया, ये सब बातें गौरी को अछि नहीं लगी,उसने पृथ्वीराज को आदेश दिया की तुम अपनी आंखे झुका कर हमसे बात करो,पर वीर पृथ्वीराज ने अपनी आंखे नहीं झुकी. उसने उसी समय पृथ्वीराज की दोनों आंखे लोहे की गरम सलाखे से निकलवा दी. आंखे न रहने पर अब पृथ्वीराज बहुत ही दीन अवस्था में चले गए. उन्हें अब अपने किये पर पछतावा होने लगा की बिना मतलब ही मैंने कैमाश को मार दिया, कई रानियों के कारण अपने वीर सामंतों को कटवा दिया, और संयोगिता के कारण शाषण तक त्याग दिया. उन्हें अपने किये पर बहुत पछतावा होने लगा. युद्ध के ख़तम होने के कई दिन बाद चन्द्रबरदाई किसी तरह मंदिर से निकले, और सीधे दिल्ली की ओर चले गए, वहां पर उन्होंने अपने स्वामी के बारे में सुने और बहुत दुखित हुए, अब चंदरबरदाई ने बहुत मुस्किल से किसी तरह गजनी पहुंचे वहां पर उन्होंने अपने शब्द जाल से मुहम्मद गौरी को प्रसन्न किये और पृथ्वीराज से मिलने की आज्ञा प्राप्त कर लिए. पृथ्वीराज से मिलते ही उनकी दशा को देख कर वो रो पड़े और बहुत ही व्याकुल हो उठे.पृथ्वीराज ने सारी कहानी अपने मित्र को सुना दी. उसी समय उनके मन में शहाबुद्दीन से बदला लेने का विचार उनके ह्रदय में आया. कवी चन्द्र ने गौरी को अपने वाकया जाल में फंसाया और कहा की पृथ्वीराज शब्दभेदी बाण विद्या जानते है उन्होंने बचपन में ही कहा था की ये विद्या मुझे जरुर दिखायेंगे पर इसका मौका आज तक नहीं मिला है, अब अआप भी देखे और मैं भी देख कर अपनी इच्छा पूरी करूँगा. थोड़े से तर्क वितर्क के बाद कुछ मंत्रियों ने अनुमति देने और कुछ ने न देने की बातें भी कही.परन्तु गौरी के मस्तिस्क में चन्द्रबरदाई की ऐसा कौतोहल पड़ा की उसने किसी की बात न मानी. पृथ्वीराज बहुत ही दुर्बल हो रहे थे इसलिए चन्द्र की प्राथना के बाद उन्हें कुछ दिनों तक पौष्टिक आहार दिए गए, और फिर तमाशा के लिए सब इतेजाम भी किये गए.कवी चन्द्र ने चुपचाप ही इस तमाशा का उद्देश्य पृथ्वीराज को समझा दिया गया था.कवी चन्द्र ने शहाबुद्दीन गौरी को ते बात भी बता दी थी की यदि आप आज्ञा नहीं देंगे तो पृथ्वीराज बाण नहीं छोड़ेगे क्योंकि पृथ्वीराज एक महाराज है और वो इस वक़्त आपके कैदी है इसलिए वो केवल एक महाराज की ही आज्ञा मानेंगे और किसी की नहीं.अतः बाण चलाने की आज्ञा आपको ही देनी पड़ेगी. पृथ्वीराज चौहान को दरबार में बुलाया गया और धनुष बाण दिया गया ज्यों ही उन्होंने बाण को ताना त्यों ही वो धनुष टूट गया,पृथ्वीराज ने कहा की एक राजपूत के हाथों का बल एक राजपूत का धनुष ही सह सकता है इसलिए मुझे अपना धनुष चाहिए. पृथ्वीराज को उनका धनुष दिया गया. अपने धनुष को हाथों में पाकर पृथ्वीराज खुश. हो गए. उन्होंने उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी. इस वक़्त कवी चन्द्र ने अपने कविता के मध्यम से बहुत ही ओजस्वनी भाषा में खा की इस वक़्त आपके हाथ में धनुष, सामने तवा और बायीं ओर शाह बैठा है.आप अपने ह्रदय को मज्बूओत करके इस मौके को उपयोग में लाइए, पृथ्वीराज ने कहा सच ऐसा मौका फिर न मिलेगा, मैं अवश्य तुम्हारे कथनानुसार कार्य करूँगा, कालग्रस्त शाहबुद्दीन ने पृथ्वीराज को बाण चलने की आज्ञा दे दी. चरों ओर से शत्रुओं से घिरे पृथ्वीराज अकड़ कर खड़े हो गए, और शहाबुद्दीन की आज्ञा का इन्तेजार करने लगे.पहले दो तीन वार तवों पर पृथ्वीराज ने किया और फिर अगला वार शहाबुद्दीन के आदेश देते ही पृथ्वीराज ने घूमकर शहाबुद्दीन पर कर दिया. यह बाण शाहबुद्दीन के ठीक मुंह में लगा और तालू फोड़ कर दूसरी ओर निकल गया. गौरी जहाँ तहां छटपटाता और हाथ पैर पटकता हुआ रह गया. कुछ देर तक तो चारों ओर सन्नाटा छा गया लेकिन फिर हाहाकार मच गया सभी लोग उन्हें मारने के लिए दौड़ पड़े,. कवी चन्द्र ने अपनी जीत का समाचार प्रिथ्व्विराज को सुनाया और फिर चन्द्र बरदाई ने अपनी छुरी निकाल कर अपने पेट में भोंक ली और फिर उसी छुरी को निकाल कर पृथ्वीराज के हाथों में दे दी और पृथ्वीराज ने उसे अपने सीने में भिनक ली इस तरह से आत्म्हत्या कर पृथ्वीराज का अंत हुआ. अंग्रेजो ने पृथ्वीराज के मौत के बारे में लिखा है की उनकी मौत तेरायन के दुसरे युद्ध में ही हो गयी थी,जिसे बहुत बाद में भारत के प्रति सम्मान रखने वाली मुसलमान लेखिका ने गलत साबित करते हुए पृथ्वीराज और चंदरबरदाई की कब्र को गजनी में दिखाते हुए चंदरबरदाई के लिखे पृथ्वीराज रासो को ही सच बताया है.इसके बाद कई मुसलमान शाशकों ने दिल्ली को उजाड़कर सारे भारतवर्ष में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया.

पृथ्वीराज और संयोगिता का मिलन

     पृथ्वीराज और संयोगिता का मिलन :-

जयचंद के सैनिकों ने तुरंत ही पृथ्वीराज के निवास स्थल को घेरने के लिए चल पड़ी जैसे ही ये बात पृथ्वीराज के एक सामंत लाखिराय को मिली वो तुरंत ही उनसे युद्ध करने के लिए अग्रसर हो गए. उन्होंने बहुत ही वीरता से युद्ध किया इस युद्ध में पृथ्वीराज का सामंत लाखिराय मारा गया और जयचंद का मंत्री सुमंत और सह्समल समेत कई सामंत भी मारा गया. भांजे और अपने राजमंत्री की मौत और हार का समाचार सुनकर जयचंद और भी क्रोधित हो उठा और अपने हिन्दू और मुसलमान सेना को आक्रमण करने का आदेश भी दे दिया, और साथ ही वो स्वयं भी युद्ध क्षेत्र में जा पहुंचा. युद्ध आरम्भ हो गया, इसबार पृथ्वीराज ने अपने सेना का भार पंगुराय को देकर स्वयं पृथ्वीराज ने संयोगिता को लाने के लिए चले गए. पृथ्वीराज के सामंत ने उन्हें अकेले जाने से रोका पर पृथ्वीराज उनका कहना न मानकर घोड़े में बठकर अकेले ही कन्नोज जा पहुंचे. पृथ्वीराज तो उधर चले गए और इधर दिल्ली में शत्रु सेना चन्द्र के निवास स्थल तक जा पहुंची.जयचंद्र दिल्ली में अपनी सेना का प्रबंध कर लौट आया. जयचंद की सेना ने चौहान सेना को चारों ओर से घेर लिया बहुत ही भयानक युद्ध होने लगा. जयचंद्र के लगभग दो हज़ार योद्धा मारे गए, पृथ्वीराज के भी कई सामंत और सैनिक मारे गए. पृथ्वीराज घुमते फिरते ठीक उसी स्थान में जा पहुंचे जहाँ संयोगिता थी. महल की दासियाँ झांक झांक कर पृथ्वीराज को देखने लगी. अब वे गंगातट में बैठ कर मछलियों का तमाशा देखने लगे. संयोगिता अपने सहेलियों के साथ पहले से ही पृथ्वीराज को गंगातट में बैठे हुए देख रही थी. संयोगिता पृथ्वीराज को पहचानती नहीं थी. संयोगिता पृथ्वीराज का कामदेव सा रूप देखकर अपने सुध बुध भूल चुकी थी. उनमे से कुछ सहेलियों ने उन्हें बताया की लगता है यही महाराज पृथ्वीराज चौहान है, क्या उनका परिचय पुछा जाए. संयोगिता ने कहा की मेरा भी मन यही कहता है की यही मेरे प्राणेश्वर पृथ्वीराज है, मेरी हाल तो सांप-छुछुंदर सी हो गयी है इधर जब मैं अपने माता पिता को देखती हूँ तो उनके प्रति वेदना उत्पन्न हो जाती है और जब पृथ्वीराज के बारे में सोचती हूँ तो उनसे मिलने की इच्छा होती है. इसी बीच पृथ्वीराज के घोड़े के गले की माला की एक मोती टूटकर गंगा में लुडकता हुआ जा गिरा.मछलियाँ उसे खाने का पदार्थ समझ कर एक दुसरे को हटाती हुई उस मोती की ओर लपक पड़ी और उसे खाने का प्रयत्न करने लगी.इसे देखकर पृथ्वीराज ने उस माला के सभी मोती को गंगा में एक एक कर डालने लगे, संयोगिता भी ये सारी चीजें देख रही थी, उसने अब अपनी दासी को पृथ्वीराज के पास एक मोतियों से भरा थाल देकर भेज दिया, और वो दासी ठीक पृथ्वीराज के पीछे खड़ी हो गयी, अब वो दासी पृथ्वीराज को मुट्टी भर भर के मोतियाँ देने लगी और पृथ्वीराज मछलियों में खोय सभी मोतियाँ गंगा में डालते चले गए, जब सारे मोती ख़तम हो गए तब दासी ने अपने गले का हार खोलकर पृथ्वीराज को दे दिया हाथ में हार देखकर पृथ्वीराज चोंक गये, जब उन्होंने पीछे मुड़ा तो उन्होंने एक स्त्री को देखा और फिर पृथ्वीराज उससे पूछने लगे की तू कौन है? तब दासी ने अपना परिचय देते हुए कहा की मैं महाराज जयचंद की राजकुमारी संयोगिता की दासी हूँ, पृथ्वीराज ने भी अपना परिचय दे दिया, इतना सुनते ही उस दासी ने पृथ्वीराज को संयोगिता के तरफ इशारा कर दिया, संयोगिता उस समय खिड़की से पृथ्वीराज को ही देख रही थी,संयोगिता को देखते ही पृथ्वीराज की बहुत ही विचित्र दशा हो गयी. दासी ने भी संयोगिता को इशारे में सारी बातें बता दी. संयोगिता ने सभी से सलाहकार पृथ्वीराज को महल में बुला लिया और यहीं पर उन्होंने गंधर्व विवाह किया. अब वहां से घर जाने का समय हो गया था क्योंकि उन्हें मालूम था की उनके सामंत अभी भी युद्ध कर रहे थे, घर जाने के नाम से ही संयोगिता व्याकुल हो उठी और विलाप करने लगी, उनकी दशा बहुत ही दींन हो गयी.पृथ्वीराज भी बहुत व्याकुल हो उठे पर उन्हें वहां ठहरना उचित न लगा,इतने में ही गुरुराम पृथ्वीराज को सामने से आते हुए दिखाई दिए, इन्हें देखकर पृथ्वीराज के जी में जी आया, गुरुराम को पृथ्वीराज की तलाश में भेजा गया था. गुरुराम ने पृथ्वीराज को कहा की अआप तो यहाँ श्रींगाररस में डूबे हुए है परन्तु क्या आपको पता है की लक्खिराय,इंदरमन,कुरंग, दुर्जनराय, सलाख सिंह,भीम राय, और न जाने कितने ही सामंत मारे जा चुके है, इतना कहकर उन्होंने कान्हा को दिया पत्र उनके हाथों में थमा दिया, पत्र पढ़कर पृथ्वीराज वहां से चल दिए. पृथ्वीराज को रस्ते में ही जयचंद की सेना ने घेर लिया. इस स्थान में पृथ्वीराज ने वीरता दिखाते हुए बखूबी उतने सारे सैनिकों का मुकाबला किया, गुरुराम ब्राह्मण होते हुए भी तलवार निकाल कर युद्ध में कूद पड़े, वे दोनों लड़ते लड़ते कान्हा के पास जा मिले. कान्हा से मिलते ही पृथ्वीराज ने सारी कहानी कान्हा से जा कहे, इस पर कान्हा ने कहा ये क्या महाराज, ये आप क्या कर आये, ये काम तो आप बहुत ही अनुचित किया,दुल्हिन को वहीँ छोड़ आये, या तो आपका उनका हाथ ही नहीं पकड़ना था, और अगर पकड़ लिया था तो छोड़ कर न आना था.पृथ्वीराज कान्हा की बात मान कर फिर लौट आये.साथ में वीरवर गोयन्दराय भी थे. पृथ्वीराज महल में जाकर संयोगिता को लेकर फिर अपने स्थान की ओर बढ़े. ये समाचार सारे कन्नोज में जंगल की आग की तरह तुरंत ही फ़ैल गयी की पृथ्वीराज संयोगिता को लिए जा रहे रहे है.जयचंद की सेना पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ी. इससमय कन्नोज राज्य में जयचंद का रावण नामक एक सरदार था, उसने जयचंद के आदेशानुसार सारे कन्नोज में ये बात फैला दी की पृथ्वीराज जहाँ मिल जाए उसे पकड़ कर मार दिया जाए. जयचंद ने पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए अपनी समस्त सेना को जल्द से जल्द उपस्थित होने का आदेश दे दिया. उसकी तय्यारी देखते ही सारे कन्नोज वाशी कहने लगे थे की आज पृथ्वीराज का जिन्दा कन्नोज से निकल जाना असंभव है. राह में ही जयचंद की सेना का सामना पृथ्वीराज से फिर से हो गया. जयचंद की सेना को देखकर गोयन्दराय ने इस समय अतुल्य प्रकारम दिखाया, उसने दोनों हाथों में तलवार लेकर जयचंद की सेना में इस तरह टूट पड़ा और उन्हें काटने लगा की जैसे कोई गाजर मूली काटता हो, गोयन्दराय ने अकेले ही शत्रु की सेना में हलचल मचा दी, उसने जयचंद के कई सैनिकों को अकेले ही मार गिराया,अंत में गोयन्दराय इस वीरता के बावजूद वीरगति को प्राप्त किया, पृथ्वीराज ने संयोगिता को एक किनारे में कर खुद भी युद्ध में उतर गए और वीरता के साथ लड़ने लगे,पृथ्वीराज के अलाव पंज्जूराय,केहरीराय, कएंथिर परमार,पिपराय,आदि भी युद्ध में पराकर्म दिखने लगे. पंज्जुराय भी मारा गया, लेकिन मरने से पहले उसने जयचंद की मुसलमान सेना को बहुत हानि पहुँचाया.अब पुयांदिर कान्हा के साथ युद्ध भूमि में आकर पृथ्वीराज की मदद करने लगा, एक एक कर पृथ्वीराज के कई सामंत मरने लगे, पुयांदीर ने भी शाम तक युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त किये. रात हो चुकी थी लेकिन आज युद्ध थमने का नाम नहीं ले रही थी. अब कान्हा ने अपना बहुत ही परक्रम दिखाया. आज के युद्ध में कान्हा ने जैसा प्रक्रम दिखाया है उसे देखकर चंदरबरदाई ने बहुत ही ज्वलंत भाषा में लिखा है की कान्हा की तलवार का घाव खाकर मेघ के सामान शरीर वाले हाथी और शत्रु के सेना मेघ के सामान ही गरज उठते थे. धीरे धीरे रात गहरी हुई और युद्ध थम गया, सब सामंतों ने संयोगिता समेत पृथ्वीराज को बीच में किया और बैठकर धीरे धीरे ये विचारने लगे की आगे क्या करना है.सभी सामंतों ने चंदरबरदाई को दोष देने लगे की इसी के सच बोलने के गुण के कारण हम पर इतनी बड़ी विपदा आई है. पृथ्वीराज ने सबको समझाया. इस समय सभी सामंतों की लाश को एक जगह एकत्र किया जाने लगा, पृथ्वीराज उन्हें देखकर अपने आप को रोक नहीं पाए और और जिस जगह में लाश रखी थी उस जगह जाकर उनसे लिपट लिपट कर रोने लगे और अपना माथा पटकने लगे. पृथ्वीराज की दुर्गति देखकर सारा माहोल शोक में डूब गया, पृथ्वीराज का रो रो कर जब बहुत ही बुरा हाल हो गया तब चन्द्रबरदाई ने उन्हें समझाने को कोशिश की कि जो होना था वो तो हो गया अब आगे के लिए क्या विचार है.सभी सामंतों ने ये विचार किया की अभी जैसे बन पड़े महाराज को बेदाग़ दिल्ली पहुंचा देना चाहिए,इसके बाद हम दुश्मन के सेना को समझ लेंगे अगर हम सबको भी वीरगति को प्राप्त करना पड़े तो कोई बात नहीं सीधे स्वर्ग पहुंचेंगे. अब सामंत उन्हें समझाने लगे की आप संयोगिता को लेकर रात्रि के अँधेरे में निकल जाए, सभी सामंत पृथ्वीराज को समझा कर थक गए पर वो एक न माने, उनके सामंत जितना समझाते वो उतना ही उनपर बिगड़ते. उनकी ये हालत देखकर सभी सामंत बहुत दुखी हुए. सुबह होते ही पृथ्वीराज घोड़े पर सवार हुए संयोगिता उनके पीछे जा बैठी,सारे सिपाहीगण और सामंत उन्हें चारूं ओर से घेरे हुए दिल्ली की ओर अग्रसर हुए,इधर कन्नोज की सेना उनको राह में गिरफ्तार करने के लिए बहुत ही वेग से बढ़ी. कन्नोज सेना पृथ्वीराज को पकड़ना चाहती और सभी सामंतगण उनकी रक्षा किये जा रहे थे. पृथ्वीराज की सेना एक घेरा बनाये हुए दिल्ली की ओर चली जा रही थी, जयचंद की सेना बराबर उनके पीछा करती जा रही थी, इस तरह से युद्ध करते करते कान्हा भी वीरगति को प्राप्त किया. इस युद्ध में पृथ्वीराज के चौसठ सामंत वीरगति को प्राप्त किये. और बहुत ही कठिनता से दिल्ली पहुँच गए. इसप्रकार से पृथ्वीराज अपने राज्य की इतने मजबूत स्तंभों को गंवाकर संयोगिता का हरण किया.



संयोगिता हरण

                                                            संयोगिता हरण:-


महोवा का युद्ध समाप्त हो चूका था, महोवा तथा कलिकंजर पर पृथ्वीराज का अधिकार हो गया था, उन्होंने केवल महोवा को अपने अधिकार में लेकर करद राज्य बना कर वापस परमार को सौंप दिया, तारायन के युद्ध में भी विजयलक्ष्मी पृथ्वीराज को वरमाला पहना ही चुकी थी. इस विजय के कारण दिल्ली में कुछ दिनों तक उत्सव मनाई जाने लगी थी. इस धूमधाम और पृथ्वीराज के बार बार जीत के कारण जयचंद मन ही मन जल रहा था, साथ ही साथ संयोगिता ने जो पृथ्वीराज के कारण जयचंद का जो अपमान किया था उससे उसका माथा और भी झुक गया था. इधर पृथ्वीराज के मन में संयोगिता को पाने की इच्छा बढ़ती ही जा रही थी, ब्राह्मणों ने पृथ्वीराज को ये खबर दे दी की संयोगिता को जयचंद ने गंगा किनारे किसी महल में कैद कर रखा है. पृथ्वीराज ने अपने मित्र चंदरबरदाई को कन्नोज की राजधानी राठौर चलने का आग्रह किया, कवि चन्द्र ने उन्हें बहुत समझाना चाहा की जयचंद बहुत ही बलवान राजा है, उसने थोड़े से ही सेना के साथ दिल्ली नगरी के सैंकड़ो गावों को जला दिया और लूट लिया था उसने कई तरह से आपकी प्रजा को कष्ट पहुंचाया अतः आपका वहां जाना किसी भी तरह से उचित नहीं है. इतना समझाने पर भी पृथ्वीराज ने कवी चन्द्र की एक ना मानी, अंत में लाचार होकर उन्हें पृथ्वीराज के साथ ही जाना पड़ा. इसके कुछ दिन बाद एक शुभ मुह्रुत देखकर पृथ्वीराज, चंदरबरदाई और अपने कुछ सामंतों के साथ वो भेष बदलकर कन्नोज की ओर चल दिए उनके साथ कुछ थोड़ी सेना भी थी. जिस समय वे कन्नोज की ओर निकले थे उस समय कई सारे अपशकुन हुए थे, परन्तु पृथ्वीराज अपने सामंतों के मना करने पर भी कन्नोज की ओर अग्रसर होते चले गए, कभी कभी मनुष्य को इश्वर भी कई तरह से समय असमय की बातें बताने की कोशिश करता है पर ये तो मनुष्यों पर निर्भर है की वो उनकी बात मानता है या नहीं. इन्ही कार्यों का नाम] शकुन और अपशकुन रखा गया है. पृथ्वीराज के समोंतों को ये एहसास हो गया था की कुछ बहुत गलत होने वाला है पर पृथ्वीराज के सामने कोई भी कुछ बोलने से कतरा रहा था. पृथ्वीराज ने कन्नोज पहुँच कर अपने बदले हुए भेष में ही कन्नोज राज्य घूमा. जयचंद के पास तीन लाख घुड़ सवार, एक लाख हाथी और दस लाख पैदल सेना थी जो की भारतवर्ष की एक बहुत ही शक्तिशाली राज्य थी. पृथ्वीराज ने जयचंद के इन सैनिक बल और दस हजारी सेना को देखा जो राज्य का स्तंभ स्वरूप कड़ी थी, इसे देखकर पृथ्वीराज का विशाल ह्रदय भी कांप उठा, परन्तु अब क्या हो सकता है जिस काम के लिए घर से निकले है उसे तो अब पूरा करना ही था. कवि चन्द्र पृथ्वीराज को लिए जयचंद्र के द्वार के फाटक पर पहुँच गए, जयचंद्र के पास कवी चन्द्र के आने की खबर पहुंची, जयचंद्र चंदरबरदाई के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था, जयचन्द्र वीरों और कवियों की सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ता था इस लिए वो अपने दरबार के कुछ कवियों को कवी चन्द्र के पास भेज कर पहले उनकी परीक्षा करवाई और फिर दरबार में बुला लिया. दरबार में कवी चन्द्र ने जयचंद्र के पूछे हुए कितने ही सवालों का जवाब दिया. चन्द्रबरदाई ने कहा:-
”जहाँ वंश छतीस आवे हुंकारे.
तहां एक चहूवान पृथ्वीराज टारे
. कवि चन्द्र के ये अंतिम पद जयचंद्र के ह्रदय में तीर सा जा चुभे उसके नेत्र लाल हो गए. वह भयानक रूप से क्रोधित हो उठा, कवि चन्द्र ने पृथ्वीराज की प्रसंसा में इतने जोरदार सब्द कहे थे की वहां मौजूद सभी लोग स्तब्ध होकर कवी चन्द्र और जयचंद को देखने लगे थे. जयचंद इर्श्यन्वित हो उठा उसके छाती में सांप लोटने लगे उसने एक लम्बी ठंडी सांस भरी और कहा-
“पृथ्वीराज अगर मेरे सामने आये तो बताऊँ”
. पृथ्वीराज चन्द्रबरदाई के सेवक के रूप में पहले से ही पीछे खड़े थे, जयचंद की बातें सुनकर पृथ्वीराज भी बहुत क्रोधित हो उठे यद्यपि उन्होंने अपने आप को उस समय बहुत संभाला लेकिन उनके नेत्रों का रंग ही गुस्से से बदल गया, जयचंद ये देखकर मन ही मन संदेह करने लगा की कहीं ये ही तो पृथ्वीराज नहीं, लेकिन फिर सोचा पृथ्वीराज जैसा तेजस्वी पुरुष चन्द्रबरदाई का सेवक बन कर यहाँ क्यों आएगा, इस भ्रम में वो कुछ नहीं कहा. इसी बीच एक और घटना घटी. जयचंद की दासियाँ दरबार में पान लेकर आई उन दसियों में कर्नाटकी भी थी. कर्नाटकी ने ये प्रतिज्ञा ली थी की वो पृथ्वीराज के अलावा सभी के सामने घूंघट करेगी. वो जैसे ही पृथ्वीराज के सामने आई उसने पृथ्वीराज को पहचान लिया और वैसे ही घूंघट को हटा दिया. यह देखकर दरबार में सन्नाटा छा गया. सभों को ये यकीन होने लगा की पृथ्वीराज दरबार में चंदरबरदाई के साथ अवश्य ही मौजूद है. वे सभी एक दुसरे से काना फूसी करने लगे. जयचंद के कितने सामंतों ने तो ये कह दिया की पृथ्वीराज इनके साथ ही है इसलिए इन्हें बंदी बनाकर रख लिया जाए, परन्तु जयचंद ने सभों को रोक लिया. कवि चन्द्र बहुत ही तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे,दरबार का बदला हुआ रुख देखकर उन्होंने तुरंत कहा:-
”करि बल कलह सुमंत्री मासों,
नाहीं चहुवान सरन्न्न विचासो.
सेन सुवर कही कवि समुझाई,
अब तू कलह करन इहां आई.””
इतना कह कर कवी चन्द्र ने इशारों में उसे समझा दिया की
“ तू हमारा काम ख़राब कर रही है,क्या तू यहाँ युद्ध करवाने के लिए आई है. कवी का इशारा समझ कर कर्नाटकी ने आधा माथा ढक लिया.जब इसका कारण कर्नाटकी से पूछा गया तब उसने कहा की कवी चन्द्र पृथ्वीराज के बचपन के साथी है इसलिए मैं उनका आधा लाज रखती हूँ, इस तरह से ये बात उस समय तो दब कर रह गयी लेकिन जयचंद्र का संदेह दूर नहीं हुआ था. इसके बावजूद उसने कवी चन्द्र की बहुत खातिरदारी की, उसने नगर के पश्चिम भाग में कवी चन्द्र के रहने का प्रबंध कराया और अतिथि सत्कार किया. उसने अपने सेवकों से उनपर नज़र रखने के लिए भी भी कह दिया. उसके सेवक ने उसे कवी चन्द्र की हर सूचना जयचंद को देना शुरू कर दिया, उसने कहा की कवी चन्द्र के साथ एक विचित्र नौकर है उसके ठाठ बात, रहन सहन, शान शौकत को कवी चन्द्र भी नहीं पा सकता है. पृथ्वीराज यद्यपि नौकर बनकर वहां गए थे लेकिन जिस मकान पर वे रुके थे वहां पर उनका सम्मान अन्य सामंत एक राजा के रूप में ही कर रहे थे, वो एक ऊँचे आसन में बैठे थे, उन्हें बैठे हुए जयचंद के सेवक ने देख लिया था, और जाकर जयचंद को इसका समाचार दे दिया की कविचंद्र के साथ पृथ्वीराज भी अवश्य ही आये हुए है, जयचंद को तो पहले से ही संदेह था अब तो उसे पूरा विश्वास हो गया था. उसने अपने खास खास सैनिकों को एकत्र किया और चन्द्र बरदाई को विदाई देने के लिए हाथी, घोड़े और बहुत सा रत्न लेकर उनकी और रवाना हो गए. उसने अपने सैनिकों को समझा दिया की कवी चन्द्र का कोई भी साथी भागने नहीं पाए. जयचंद अपने साथियों के साथ चंदरबरदाई के पास पहुँच गया, थोड़ी देर तक उन्होंने शिष्टाचार की बातें की उसके बाद जयचंद ने कवी चन्द्र के सेवक बने पृथ्वीराज को पान देने का आदेश दिया, पृथ्वीराज चौहान ने उन्हें पान दिया पर बाएं हाथ से ऐसे अशिष्टता को देखकर जयचंद जल भुन गया पर ऊपर से प्रसान्नता दिखाते हुए वो कुछ नहीं बोला, इस तरह की अनेक बातें उस समय हुई, जयचंद पृथ्वीराज को गौर से देखने लगा परंतू पृथ्वीराज ने इस तरह से अपना भेष बदल रखा था की जयचंद के बार बार देखने पर भी वो पृथ्वीराज को नहीं पहचान पाया. जयचंद को विश्वास होते हुए भी उस समय कुछ न बोल पाया क्योंकि अगर वो सेवक पृथ्वीराज न निकला तब उसकी बड़ी बदनामी होती और लज्जित भी होना पड़ता, इस डर से वो चुप रहना ही उचित समझा और अपने महल लौट आया. जयचंद क्रोध से अपने मंत्री से कहने लगा की हमें पृथ्वीराज को पकड़ कर मार डालना चाहिए इससे संयोगिता की आश भी टूट जायगी और मेरा अपमान का बदला भी पूरा हो जायेगा. राजमंत्री सुमंत ने कहा की इतने बड़े प्रतापी राजा को पकड़ कर मारना कदापि संभव नहीं है और पृथ्वीराज यहाँ चंदरबरदाई के साथ क्यों आयेंगे. इस विषय में आपको चंदरबरदाई से ही सीधे सीधे पुच लेना चाहिए.वो कदापि झूठ नहीं बोलेंगे. जयचंद को अपनी मंत्री की बात अच्छी लगी क्योंकि उन्हें मालूम था की चंदरबरदाई कभी झूठ नहीं बोलते है. अतः उन्होंने चंदरबरदाई को बहुत ही आदर के साथ बुलाकर पुछा की क्या पृथ्वीराज तुम्हारे साथ है, चंदरबरदाई ने इसका जवाब बहुत ही खूबसूरती से अपनी ओजस्वनी भाषा में पृथ्वीराज की कृती कथा का वर्णन करते हुए कह दिया की वे अभी कन्नोज में ही है उनके साथ ग्यारह लाख योद्धाओं को मार गिराने वाले ग्यारह सौ सैनिक और सामंत भी है.इतना सुनते ही जयचंद ने कवी चन्द्र को विदा किया और मंत्री सुमंत को अपनी सेना को तयार करने का आदेश दे दिया

थानेश्वर का युद्ध

                                                       थानेश्वर का युद्ध:-

 घर का भेदिया सदा से ही बुरा होता है, धर्मायण के बारे में आप पहले से ही जान चुके है वो हमेशा से पृथ्वीराज की खबरे मुहम्मद गौरी तक पहुंचाता रहता था, एक बार पृथ्वीराज पानीपत के समीप शिकार खेल रहे थे, उस समय पृथ्वीराज को ये समाचार मिला की शहबुद्द्दीन फिर युद्ध के लिए चला आ रहा है. ये समाचार सुनकर पृथ्वीराज ने तुरंत ही सामंतों की सभा एकत्र की और तुरंत ही चितोड़ समर सिंह के पास ये सूचना दे दी गयी.जब तक शाहबुद्दीन आता तब तक पृथ्वीराज ने भरपूर सेना एकत्र कर ली थी. थानेश्वर का युद्ध को ही तेरायन का युद्ध भी कहते है.इस बार के युद्ध में वीरवर गोयांद्राय भी सम्मिलित थे. कई बार पृथ्वीराज से हारने के बाद गौरी इस बार एक बहुत बड़ी सेना लेकर युद्ध में आया था, वह तेज़ी से बढ़ता हुआ उस स्थान में आ पहुंचा जहाँ पृथ्वीराज शिकार के लिए अपना शिविर डाले थे. गौरी के पहुँचते ही पृथ्वीराज भी युद्ध के लिए तयार हो गए. सेना में जंगी बाजे बजने लगे पृथ्वीराज समेत सभी सामंत और राजपूत सेना युद्ध के लिए सुसज्जित हो उठे, युद्ध का हर हथियार चमकने लगा. इस बार पृथ्वीराज ने बीस हज़ार सेना लेकर मुहम्मद गौरी के एक लाख सेना का सामना किया था. सवेरा होते ही दोनों दलों की सेना युद्ध मैदान में आ पहुंची और थोड़ी ही देर में दोनों दल इस तरह एक दुसरे पर टूट पड़ी की न कोई अपना और न कोई पराया दिखने लगा, सभी एक दुसरे के खून के प्यासे हो गए. युद्ध करते करते दो यवन सरदार कई राजपूतों को काटते हुए पृथ्वीराज तक आ पहुंचे, परंतू पृथ्वीराज चौहान ने उन दोनों का मुकाबला इतनी ख़ूबसूरती से किया की क्षण भर में ही दोनों मारे गए. इसी तरह मुसलमानों के पैर उखड़ने लगे और वो एक बार फिर पीछे हटने को मजबूर होने लगे. ये देखकर गौरी स्वयं आगे बढ़ा और अपनी सेना को ललकारा, अपने स्वामी को आगे बढ़ता देखकर यवनी सेना में फिर से जोश भर आया और फिर अपने प्राणों की माया छोड़ युद्ध करने लगे. परन्तु बीस हज़ार राजपूत सेना ने इस वेग से आक्रमण किया की यवन सेना तीन तेरह होकर भाग खड़े हुए, गौरी का ललकारना कुछ काम नहीं आया, अपनी सेना को हारते देख गौरी भी वहां से भागना उचित समझा. वह घोड़े से उतर कर हाथी में बैठा ही था की वीर पहाड़राय और लोहाना अजानुबहू आकर गौरी को घेर लिए अपने स्वामी की ये दशा देखकर यवनी गौरी की रक्षा के लिए आगे आये. पृथ्वीराज के भी कई सामंत भी गौरी की तरफ बढ़े, इस जगह में बहुत भीषण युद्ध होने लगा. लोहाना अजानुबाहू ने हाथी पर ऐसा वार किया की हाथी का सर धड से अलग हो गया, गौरी वहीँ जमीन में गिर गया . मुहम्मद गौरी इस बार बहुत बुरी तरह से जख्मी हुआ था, पहाड़राय ने मुहम्मद गौरी को उठा लिया और दिल्ली ले आये पृथ्वीराज उसे दिल्ली ले आये और एक महीने के बाद उसे छोड़ दिया.मुसलमान सेना बहुत बुरी तरह हार ही गयी थी, मुहम्मद गौरी तो इस बार बच गया परन्तु यवनी सेना इस हार को कभी नहीं भूलेगी, मुसलमान सेना बहुत बुरी तरह ससे पराजित हो चुकी थी. तेरायन के युद्ध का ये तो रासो का कथन है परन्तु मुसलमान ईतिहासकार तबकात इ नसीरी का कुछ अलग ही मत है उसका कहना है की जब मुहम्मद गौरी हाथी से गिरने के बाद बुरी तरह से घायल हो गया था तब गौरी को घायल देखकर यवनी सरदार खिलजी ने गौरी को सम्भाला और युद्ध मैदान से भगा कर बाहर ले आया. परन्तु यवनी की इतनी बड़ी हार को देखकर ये बिलकुल भी नहीं लगता है की पृथ्वीराज के अनुमति के बिना मुहम्मद गौरी युद्ध मैदान से बाहर जा सकता था या बच सकता था.

कैमाश वध


                                                          कैमाश वध:-

पृथ्वीराज के पुत्र रेणुसिंह और चामुंडराय के बीच बड़ी घनिष्टता की मित्रता थी. दोनों मामा भतीजे एक दुसरे को अत्यंत ही स्नेह दृष्टि से एक दुसरे को देखते थे.यह बात कितनो को ही खटक रही थी. एक दिन अवसर देख कर पुंडीर ने ये बात पृथ्वीराज से कही की मुझे कुछ डाल में काला मालूम होता है. चामुंडराय आपके पुत्र को अपने वश में कर दिल्ली में अधिकार करना चाहता है. यह सुनकर पृथ्वीराज ने चामुंडराय से उस समय तो कुछ नहीं कहा पर पुंडीर की ये बात उन्हें ह्रदय में चुभ गयी. इसके बाद घटना वश एक दिन पृथ्वीराज का एक हाथी खुल गया. उस हाथी ने कितनो को ही मार कर जगह जगह इधर उधर घूमने लगा. एक गली में उसका सामना चामुंडराय से हो गया. चामुंडराय के लिए भागने का स्थान नहीं था इसलिए उसने अपनी तलवार निकाली और उस हाथी की सूंड को काट दिया, सूंड के कटते ही वो हाथी जमीन में कराहकर गिर गया और वहीँ मर गया. जब पृथ्वीराज को साडी घटना का मालूम हुआ तब वो चामुंडराय में बहुत क्रोधित हुए और उसे तुरंत गिरफ्तार करने के लिए गुरुराम और लोहाना अजनुबाहू को भेजा. चामुंडराय की गिरफ़्तारी को सुनकर उसके मित्रों ने पृथ्वीराज के खिलाफ युद्ध करना चाहा परन्तु स्वामी भक्त चामुंडराय ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया. चामुंडराय ने सबको समझा बुझा कर शांत किया और अपने हाथों ही अपनी पैरों में बेड़िया बाँध लिया. बस इसी समय से पृथ्वीराज की अध्य्पतन शुरू होती है. चामुंडराय को कैदकर पृथ्वीराज शिकार खेलने चले गए. इस समय सेनापति कैमाश पर दिल्ली का शाषण भार था.
एक दिन आकाश में खूब बदल छाए हुए थे वर्षा ऋतू थी, कैमाश अपने सिपाहियों के साथ कुछ जरुरी काम से राजमहल की ओर जा रहे थे. उस समय कर्नाटकी श्रींगार कर बैठी हुई वर्षा ऋतू का आनंद ले रही थी, देवयोग से कैमाश और कर्नाटकी की आंखे चार हो गयी. दोनों एक दुसरे से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे. एक तो कर्नाटकी वैश्या की पुत्री थी और दूसरा पृथ्वीराज दिल्ली में न थे, इसके बावजूद कैमाश वर्षा ऋतू में कर्नाटकी पर मुग्ध हो गए, इतना बुद्धिमान और स्वामिभक्त होने के बावजूद भी कैमाश इतना बड़ा पाप से कैसे लिपट गया इसका पता नहीं लगता जो भी हो कैमाश रात्री के समय कर्नाटकी के पास जा पहुंचा, इस समय रानी इच्छन कुमारी के मन में कुछ संदेह हो गया. उसने चुपचाप इस बात का पता लगा लिया की कैमाश और कर्नाटकी के बीच अनुचित संबंध है. उसने तुरंत ही पृथ्वीराज के पास ये समाचार अपनी दासी के द्वारा भेजवा दिया. पृथ्वीराज चुपचाप उसी समय दासी की बातें सुनकर आ गए, उन्होंने अपनी आँखों से कैमाश और कर्नाटकी को एक साथ शयन किये हुए देखा. पृथ्वीराज ने उसी समय शयन कक्ष में घुसकर कैमाश को मारा, कैमाश वही परलोक सिधार गया, परन्तु कर्नाटकी किसी तरह बाख कर वहां से भाग निकली और सीधे जयचंद के पास पहुँच गयी. पृथ्वीराज ने तुरंत ही कैमाश को वही जमीन खोदकर गाड़ दिए और वापस शिकार गृह में लौट आये, यद्यपि ये काम पृथ्वीराज ने बहुत ही गुप्त तरीकों से किया था परन्तु चंदरबरदाई को किसी तरह ये बात मालूम हो गयी थी. अगले दिन पृथ्वीराज अपने शिकार गृह से लौट आये. और इधर कैमाश को हर तरफ खोजा जाने लगा. कैमाश को कहीं नहीं देखकर सभी सामंत बड़े चिंतित हो उठे.एक दिन दरबार में बैठकर पृथ्वीराज ने सबके सामने कवी चन्द्र से पुचा की राजमंत्री कैमाश कहाँ चला गया है क्या तुम बता सकते हो, कवी चन्द्र ने पहले तो ये सवाल पूछने से मना किया परन्तु पृथ्वीराज ने जब अपनी हठ नहीं छोड़ी तब कवी चन्द्र ने सारी बातें सभी सामंतों के सामने कह दी. पृथ्वीराज को भी अपना गलती को स्वीकार करना पड़ा. सभी सामंत पृथ्वीराज से बहुत नाराज हुए, दिल्ली की प्रजा में पृथ्वीराज के प्रति आक्रोश फ़ैल गया. एक वैश्या के कारण कैमाश मारा गया ये सुनकर सारी दिल्ली नगरी शोक में डूब गयी, कैमाश की पत्नी ये संचार सुनकर बहुत शोकाकुल हुई, बहुत प्राथना कर कवी चन्द्र ने पृथ्वीराज से कैमाश की लाश उसके पत्नी को दिलवा दिया. कैमाश को मार डालने के कारण पृथ्वीराज का बड़ा अपमान हुआ. इसके कारण दिल्ली में हड़ताल मच गयी थी. पृथ्वीराज को अपनी गलती का एहसास हो गया. उन्होंने बड़े प्यार से कैमाश के पुत्र के सर पर हाथ फेरा और हंशीपुर के परगने को उसी समय उसे सौंप दिया. पृथ्वीराज ने अपने सभी प्रजा और सामंतों से अपने किये पर माफ़ी मांगी और कहा की उस समय इर्ष्या के कारण मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी. अंत में सभी सामंतों और दिल्ली के प्रजा ने उन्हें माफ़ कर दिया हड़ताल ख़त्म हो गयी और सारा काम पहले की तरह चलने लगा.

पृथ्वीराज का अल्लाह उदल के साथ युद्

                                            पृथ्वीराज का अल्लाह उदल के साथ युद्ध :-


दोनों भाई कन्नौज से चले, देवल भी साथ थी। जब वह रुठनेवाले अपनी मातृभूमि में पहुँचे तो सूखें धानों में पानी पड़ गया, टूटी हुई हिम्मतें बंध गयीं। एक लाख चन्देल इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़े थे। बहुत दिनों के बाद वह अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले। ऑंखों ने खुशी के ऑंसू बहाए। राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आया। आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पांव से लिपट गए। तीनों की आंखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया।
दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीं कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फौज का सेनापति बनाया गया। वहीं मरने-मारने के लिए सौगन्धें खाई गई। वहीं बहादुरों ने कसमें खाई कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगें। वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों को फैसला करने चले। आज किसी की ऑंखों में और चेहरे पर उदासी के चिन्ह न थे, औरतें हॅंस-हँस कर अपने प्यारों को विदा करती थीं, मर्द हँस-हँसकर स्त्रियों से अलग होते थे क्योंकि यह आखिरी बाजी है, इसे जीतना जिन्दगी और हारना मौत है।
उस जगह के पास जहॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मुकाबला हुआ। जयचंद ने भी अपनी सेना पृथ्वीराज से युद्ध करने के लिए भेज दी।दोनों की सम्मिलित सेना लगभग एक लाख की थी। इस सेना को लेकर आल्हा और उदक अपने स्वामी की ओर से युद्ध करने के लिए निकल पड़े। चंदेलों की इस विशाल सेना को देखकर पृथ्वीराज ने भी अपने सेना को चार भागों में विभक्त की।नरनाह और कान्हा समस्त चौहान सेना का सेनापति नियुक्त हुआ। और पुंडीर,लाखनसिंह, कनाक्राय कान्हा की मदद के लिए नियुक्त हुए। यद्यपि चंदेल सेना एक लाख थी, तथापि पृथ्वीराज की कुछ ऐसी धाक जमी हुई थी की सभी घबरा रहे थे।कन्हे के आंख की पट्टी खोल दी गयी, पट्टी खुलते ही वह इस वेग से आक्रमण किया की दुश्मन के पावं उखाडने लगे बहुत ही घोर युद्ध होने लगा राजा परमार पहले ही दस हज़ार सेना लेकर कालिंजर किले में भाग गए, परन्तु वीर बकुंडे आल्हा और उदल अपनी स्थान में ही डटे रहे।वे जिधर जपत्ता मरते उधर ही साफ़ कर देते। आल्हा उदल के होते हुए भी प्रथम दिवस के युद्ध में चौहान सेना ही विजयी रही। राजा परमार के किले में भाग जाने के बावजूद उसका पुत्र ब्रह्मजीत युध्क्षेत्र में मौजूद था, आल्हा ने उन्हें चले जाने के लिए कहा पर उसने कहा की युद्ध मैदान से भागना कायरों का काम है।प्रथम दिवस का युद्ध समाप्त होते होते पृथ्वीराज की सेना द्वारा जयचंद और परमार के कई सामंत समेत हजारों सिपाही भी मारे गए।
दुसरे दिन का युद्ध फिर शुरू हुआ आज उदल बीस हज़ार सैनिकों को लेकर युद्ध मैदान में आ पहुंचा, आज उसकी वीरता का प्रशंसा उसके शत्रु भी करने लगे, उदल की वीरता को देखकर चौहान सेना विचलित हो उठी, इसे देखकर पृथ्वीराज स्वयं ही युद्ध मैदान में आ उदल का सामना करने लगे बहुत देर तक युद्ध हुआ, परन्तु कोई कम न था, पृथ्वीराज के हाथों उदल बुरी तरह घी हो गया और आखिर का वो उनके हाथों मारा गया। उदल की मृत्यु का समाचार सुनकर ब्रह्मजीत और आल्हा बहुत क्रोधित हो उठे और अपनी प्राणों की ममता छोड़ कर लड़ने लगे। लड़ते लड़ते उन दोनों ने पृथ्वीराज को एक स्थान पर घेर लिया, पृथ्वीराज को घिरा देखकर कान्हा उनकी ओर अग्रसर हुआ, परन्तु आल्हा ने कान्हा पर ऐसा वार किया की वो बेहोश होकर गिर पड़ा, कान्हा को बेहोश होता देख संजम राय ने पृथ्वीराज की मदद करने आगे आये पर वो भी आल्हा की हाथों मारे गए चंदरबरदाई ने संजम राय की मृत्यु को बहुत ही गर्वित अक्षरों में लिखा है, उनके बारे में लिखा है की ऐसा दोस्त न कभी पैदा हुआ है और न ही कभी पैदा होगा, संजम राय ने पृथ्वीराज की खातिर अपने प्राण दे दिए, पृथ्वीराज के क्रोध की कोई सीमा न रही, और जल्द ही उन्होंने ब्रह्मजीत को मार गिराया, ब्रह्मजीत के मरते ही साडी चंदेल सेना में कोहराम मच गयी, चंदेल सेना तितर बितर होने लगी, पृथ्वीराज के सर में तो मानो आज खून सावार था, अपनी सेना को हारता देख कर जब उसे लगा की वो किसी भी तरह अपनी सेना की रक्षा नहीं कर सकता है तो वीर आल्हा ने जंगल में सन्यास ले लिया। और चंदेल सेना भाग खड़ी हुई। इसी बीच पांच हज़ार सेना लेकर चामुंडराय ने कालिंजर किले की ओर अग्रसर हो गया,यद्यपि राजा परमार ने अपनी रक्षा का पूरा पूरा प्रबंध कर लिया था, लेकिन चामुंड राय ने वीरता से आक्रमण कर कालिंजर किले में अपना अधिकार जमा लिया। और इस तरह महोवा और कालिंजर में पृथ्वीराज चौहान का अधिकार हुआ।