शशिवृता:-
खजाना निकालने का काम अभी समाप्त होते ही समर सिंह चितोड़ और पृथ्वीराज दिल्ली पधारे। इसके कुछ दिन के बाद ही पृथ्वीराज को ये खबर मिली की देवगिरी के राजा भानराय यादव की पुत्री शाशिव्रिता अनुपम सुंदरी है। भानराय अपनी कन्या का विवाह जयचंद के भतीजे वीरचंद से करवाना चाहता था, इसलिए उसने एक ब्राह्मण के द्वारा एक टिका भेज दिया था, ब्राह्मण टिका लेकर कन्नोज चला गया। परन्तु इधर शशिवृता पृथ्वीराज की प्रशंसा सुनकर मन ही मन मुग्ध हो रही थी। ये सब समाचार पृथ्वीराज को मालूम थे। जब विवाह का दिन निकट आया तो वीरचंद कन्नोज से अपनी सेना एवं सामंतों के साथ विवाह के लिए चल पड़ा। तब पृथ्वीराज भी अपनी दस हज़ार सेना और बड़े बड़े सामंतों को लेकर अपनी प्रेम पिपासा को शांत करने के लिये अग्रसर हुए। इस बार बहुत भयानक युद्ध की सम्भावना थी।
जब शाशिवृता के मन का हाल उनके माता पिता को पता चला तो उन्होंने उसे बहुत समझाना चाहा पर शाशिवृता उनकी एक न सुनी, यह देखकर देवगिरी के राजा ने अपने मंत्री से परामर्श लिए उसके मंत्री ने सुझाव दिया की आप अपनी पुत्री का विवाह वीरचंद से ही करें क्योंकि आप टिका भेजवाकर वचन दे चुके है। पर अपने पुत्री के मोह वश वे ऐसा न कर पाए, उन्होंने पृथ्वीराज को एक पत्र लिखकर ये बता दिया की शाशिवृता शिवालय में रहेगी आप उसे वहां से आकर ले जाए। जब पृथ्वीराज को ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी सेना का भार कान्हा चौहान को दे दिया और स्वम नित्ठुर राय और यादवराय के साथ देवगिरी जा कर घूमने लगे। जब पृथ्वीराज घुमते हुए किले के निचे पहुंचे तो शाशिवृता ने उन्हें देख लिया और दोनों की आंखे चार हो गयी,शाशिवृता ने अपने पिता से आज्ञा लेकर शिवालय चली गयी। उस समय शाशिवृता के साथ वीरचंद और शाशिवृता के पिता की सेना थी, इसलिए पृथ्वीराज ने बुद्धि से काम लेना उचित समझा, उन्होंने अपने सिपाहियों को योगियों के भेष में मिल जाने की आज्ञा दी यही हुआ। अस्त्रों को गुप्त रूप से छिपाते हुए पृथ्वीराज की सेना वीरचंद और भानराय के सेना में सम्मिलित हो गयी। इधर पृथ्वीराज एक सुन्दर सा घोडा लेकर मंदिर के पास आ पहुंचे, जब शाशिवृता मंदिर से पूजा कर निकली पृथ्वीराज ने शाशिवृता को सीडी पर से ही उसके करकमलों को पकड कर घोड़े पर बिठा लिया। शाशिवृता को लेकर भागते हुए वीरचंद के सेना ने पृथ्वीराज को देख लिया अब शाशिवृता के कारण एक बहुत बड़ा युद्ध होने वाला था। वीरचंद की सेना हुंकार उठी एक और जहाँ मंदिर के सामने मग्न करने वाली ध्वनि बज रही थी वहीँ वो ध्वनि युद्ध के बाजों और बिगुल में बदल गयी,जयचंद्र का भतीजा कम्धुन्ज वीरचंद केसरिया बंगा पहने, शस्त्र बंधे शिवदर्शन को आ रहा था, शाशिवृता को इस तरह हरण होते देख, उसने अपनी तलवार निकाल पृथ्वीराज की ओर झपटा, उसने सुन्दरी शाशिवृता को छीन लेना चाहा, तुरंत ही पृथ्वीराज के सामंत और सेना ने अपनी कपट भेष को फेंक कर अपने शस्त्र निकाल लिए। मंदिर के पास ही मार काट मच गयी। किसी तरह शाशिवृता को लेकर पृथ्वीराज अपने सेना के पड़ाव में आ गए। अब क्रमवध युद्ध होने लगा। बहुत भयानक युद्ध होने लगा। यद्यपि भानराय ने पृथ्वीराज को पात्र लिखकर अपनी पुत्री को उन्हें सौंपना चाहा था पर वो अपनी इज्जत बचाने के लिए वीरचंद के साथ हो लिया। संध्या होना चाहती थी पर सैनिकों में विराम न था, इसी बीच शाशिवृता का भाई मारा गया, राजा भान राय ने पृथ्वीराज से अपनी हार मानकर अपनी सेना वापस मंगवा ली, पर वीरचंद ने हार नहीं मानी। दुसरे दिन फिर युद्ध शुरू हो गया, आज के युद्ध में वीरचंद का वीर सहचर ख़ोज खवास मारा गया, उसकी मृत्यु से वीरचंद को बहुत दुःख हुआ, साथ ही उसे कुछ भय भी था इसलिए वो अपने सामंतों से विचार करने लगा की क्या करना उचित होगा। उसके सामंतों ने इस युद्ध का घोर विरोध किया और वीरचंद से कहा की एक स्त्री के लिए हज़ार सिपाहियों का बलिदान देना बिलकुल भी उचित नहीं होगा अतः इस युद्ध को यही समाप्त कर देना उचित रहेगा। वीरचंद ने उनकी बात मान ली और अपने सेना को पीछे हटने का आदेश दे दिया वीरचंद की सेना जैसे ही पीछे हटने लगी पृथ्वीराज के सेना को लगा की वो हमसे डर कर भाग रही है और पृथ्वीराज की सेना ने और भी वेग से आक्रमण कर दिया, वास्तव में वीरचंद की सेना का बल कम नहीं हुआ था, तुरंत ही उसकी सेना फिर से अपने स्थान में डट कर खड़ा हो गयी और फिर से युद्ध करने लगी, शाम होने वाली थी। वीरचंद के मस्तक में हमेशा एक चांदी का छत्र लगा रहता था, पुंडीर ने उस वीरचंद पर एक ऐसा वार किया की उसका छत्र दूर जाकर गिर गया, छत्र के गिरते ही उसकी सेना में कोलाहल मच गया वीरचन्द्र भी बहुत भयभीत हो गया, थोड़ी देर में ही रात हो गयी और युद्ध विराम हो गया। वीरचंद और पृथ्वीराज ने अपने अपने सामंतों से विचार करने लगे। पृथ्वीराज के सामंतों ने अपना मत दिया की आप शाशिवृता को लेकर दिल्ली चले जाईये हम यहाँ संभाल लेंगे पृथ्वीराज ने कहा की इसतरह हम आपलोगों को मुसीबत में छोड़ कर दिल्ली जाकर आनंन्द नहीं मना सकते है, सभों के समझाने पर भी पृथ्वीराज ने एक न सुनी अन्त में सभों को चुप होना पड़ा, सुबह होते ही युद्ध का बिगुल बज उठा, आज का युद्ध में निट्टूराय को सेनापति बनाया गया। घोर युद्ध होने लगा। पृथ्वीराज घोड़े में बैठकर इस तरह वीरचंद के सेना को काट रहे थे जैसे उनका काल उनके सामने हो, कोई भी उनके पास आने से पहले एक बार अवश्य सोच रहा था, शाम होने से पहले ही वीर पुंडीर ने वीरचंद को बंदी बना लिया पर पृथ्वीराज ने कहा की अपना काम हो गया अब उसे बंदी बनाने से कोई फायदा नहीं और पृथ्वीराज ने वीरचंद को छोड़ देने का आदेश दिया। इस तरह पृथ्वीराज ने हजारों मनुष्यों की बलिदान देकर शाशिवृता को अपना पत्नी बनाया और दिल्ली आ पहुंचे।
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ReplyDeleteBest knowledgeable
ReplyDeleteOn the death of numerous soldiers he married including Sashivrata's Brother. How many women were made widow. A shameful and cruel act.
ReplyDeleteTika bhejne se pehle ek baar Beti se bhi puch lete...Or Jab Beti ne Pasand kr liya to Jhagda karne ki kya zarurat thi
DeleteIt was unethical act too.
ReplyDeleteJab koi pehle war karega to...uska jawab dena...Koi galat kaam nhi...Its not unethical act.
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