महोवा का युद्ध:-
इतिहास में महोवा का युद्ध होने का सही सही कारण नहीं मिलता है पर रासो में लिखा है की चौहान सेना मुहम्मद गौरी से सफल युद्ध जीत कर दिल्ली वापस आ रही थी, उनमे कितने ही घायल सैनिक थे, ये सेना कई रास्तों से दिल्ली वापस जा रही थी। कुछ घायल सेना की टुकरी महोवा राज्य जा पहुंची। वर्षा ऋतू थी तथा रात अँधेरी थी, पृथ्वीराज के सैनिक आश्रय पाने के उदेश्य से यहाँ वहां भटककर चंदेल राजाओं के शाही बाग़ में जा पहुंचे, पृथ्वीराज के सैनिकों को बाग़ के रक्षकों ने रोका परन्तु वे उनकी बात न मान कर राजा परमार के सरकारी महल में डेरा डालने लगे, बात बढ़ गयी। एक सैनिक ने एक रक्षक को मार डाला, बात राजा परमार तक पहुँच गयी, राजा परमार ने हरिदास बघेल को आदेश दिया की घायल सैनिकों को पकड़ कर यहाँ पेश किया जाए। चौहान सैनिकों ने हरिदास को बहुत तरह से समझाना चाहा की वे सुबह चले जायेंगे पर हरिदास एक न माना, परिणाम ये हुआ की बात ही बात में हरिदास और उसके कुछ सैनिक ने चौहान सेना पर हमला कर दिया, चौहान सेना घायल अवास्था में ही लड़ने लगी और हरिदास मारा गया, जब परमार को हरिदास के मौत की खबर मिली तब परमार ने उदल को बुला कर सभी घायल सैनिकों को मार डालने की आज्ञा दी, उदल ने बहुत समझाने की कोशिश की कि पृथ्वीराज बहुत वीर और प्रतापी है उनसे झगडा मोल न लिया जाए, पर राजा परमार के सामंत मल्हन ने आल्हा उदल की बात को जमने न दिया, राजा की आज्ञा पाकर आल्हा उदल को बाग़ में जाकर सभी घायल सैनिकों को मार डालना पड़ा। अब यहाँ पर आल्हा उदल का परिचय देना अवश्यक है। परमार देव की सेना में दसराज नामक एक सरदार था। आल्हा उदल उसी के दो पुत्र थे। इनके पिता ने कितनी ही बार युद्ध में प्रकारम दिखा कर महोवा को विजयी बनाया था। ये दोनों भाई भी बहुत परकर्मी थे, इन्हें महोवा का मशहूर लड़ाका भी कहा जाता था, कहा जाता था की आज तक पृथ्वी में ऐसा कोई पैदा नहीं हुआ है जो इन दो भाइयों को हरा सके, उनके इन पराक्रम के कारण परमार इन्हें अपने पुत्र के जैसा मानते थे। उनका इतना बल देखकर राज्य के अन्य कर्मचारी उनसे जलते थे। आल्हा उदल के पास अच्छे नस्ल के पांच घोड़े थे जो की उनके पिता की आखिरी निशानी थे, लोगो ने राजा के कान भरे की ऐसा घोडा तो केवल महोवा के राजा के पास होने चाहिए, राजा परमार ने कुछ धन के बदले वो घोडा लेना चाहा पर आल्हा ने वो घोडा उन्हें न देना चाहा, इसपर राजा के सामंतों ने फिर से राजा के कान भरने लगे और राजा ने क्रोध में आकर उन्हें राज्य से निकलवा दिया। आल्हा उदल ने वहां रहना उचित न समझा और कन्नोज में जयचंद के पास शरणागत के रूप में आ गए। जयचंद वीरों की इज्ज़त करना अच्छी तरह से जनता था उसने उन्दोनो भाइयों को पुरे सम्मान के साथ कन्नोज में रखा। जब पृथ्वीराज को यह दिल तोड़ने वाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑंधी की तरह महोबे पर चढ़ दौड़ा और सिरको, जो इलाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्देलों ने भी फौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर फौज बिन दूल्हे की बारात थी। सारी फौज तितर-बितर हो गयी। देश में तहलका मच गया। अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पॉँव फूल गये। परमाल अपने किये पर बहुत पछताया। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी। इस मामले में अगर वह इन नियमों को इतनी सख्ती से पाबन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई। उसने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आई।
इतिहास में महोवा का युद्ध होने का सही सही कारण नहीं मिलता है पर रासो में लिखा है की चौहान सेना मुहम्मद गौरी से सफल युद्ध जीत कर दिल्ली वापस आ रही थी, उनमे कितने ही घायल सैनिक थे, ये सेना कई रास्तों से दिल्ली वापस जा रही थी। कुछ घायल सेना की टुकरी महोवा राज्य जा पहुंची। वर्षा ऋतू थी तथा रात अँधेरी थी, पृथ्वीराज के सैनिक आश्रय पाने के उदेश्य से यहाँ वहां भटककर चंदेल राजाओं के शाही बाग़ में जा पहुंचे, पृथ्वीराज के सैनिकों को बाग़ के रक्षकों ने रोका परन्तु वे उनकी बात न मान कर राजा परमार के सरकारी महल में डेरा डालने लगे, बात बढ़ गयी। एक सैनिक ने एक रक्षक को मार डाला, बात राजा परमार तक पहुँच गयी, राजा परमार ने हरिदास बघेल को आदेश दिया की घायल सैनिकों को पकड़ कर यहाँ पेश किया जाए। चौहान सैनिकों ने हरिदास को बहुत तरह से समझाना चाहा की वे सुबह चले जायेंगे पर हरिदास एक न माना, परिणाम ये हुआ की बात ही बात में हरिदास और उसके कुछ सैनिक ने चौहान सेना पर हमला कर दिया, चौहान सेना घायल अवास्था में ही लड़ने लगी और हरिदास मारा गया, जब परमार को हरिदास के मौत की खबर मिली तब परमार ने उदल को बुला कर सभी घायल सैनिकों को मार डालने की आज्ञा दी, उदल ने बहुत समझाने की कोशिश की कि पृथ्वीराज बहुत वीर और प्रतापी है उनसे झगडा मोल न लिया जाए, पर राजा परमार के सामंत मल्हन ने आल्हा उदल की बात को जमने न दिया, राजा की आज्ञा पाकर आल्हा उदल को बाग़ में जाकर सभी घायल सैनिकों को मार डालना पड़ा। अब यहाँ पर आल्हा उदल का परिचय देना अवश्यक है। परमार देव की सेना में दसराज नामक एक सरदार था। आल्हा उदल उसी के दो पुत्र थे। इनके पिता ने कितनी ही बार युद्ध में प्रकारम दिखा कर महोवा को विजयी बनाया था। ये दोनों भाई भी बहुत परकर्मी थे, इन्हें महोवा का मशहूर लड़ाका भी कहा जाता था, कहा जाता था की आज तक पृथ्वी में ऐसा कोई पैदा नहीं हुआ है जो इन दो भाइयों को हरा सके, उनके इन पराक्रम के कारण परमार इन्हें अपने पुत्र के जैसा मानते थे। उनका इतना बल देखकर राज्य के अन्य कर्मचारी उनसे जलते थे। आल्हा उदल के पास अच्छे नस्ल के पांच घोड़े थे जो की उनके पिता की आखिरी निशानी थे, लोगो ने राजा के कान भरे की ऐसा घोडा तो केवल महोवा के राजा के पास होने चाहिए, राजा परमार ने कुछ धन के बदले वो घोडा लेना चाहा पर आल्हा ने वो घोडा उन्हें न देना चाहा, इसपर राजा के सामंतों ने फिर से राजा के कान भरने लगे और राजा ने क्रोध में आकर उन्हें राज्य से निकलवा दिया। आल्हा उदल ने वहां रहना उचित न समझा और कन्नोज में जयचंद के पास शरणागत के रूप में आ गए। जयचंद वीरों की इज्ज़त करना अच्छी तरह से जनता था उसने उन्दोनो भाइयों को पुरे सम्मान के साथ कन्नोज में रखा। जब पृथ्वीराज को यह दिल तोड़ने वाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑंधी की तरह महोबे पर चढ़ दौड़ा और सिरको, जो इलाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्देलों ने भी फौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर फौज बिन दूल्हे की बारात थी। सारी फौज तितर-बितर हो गयी। देश में तहलका मच गया। अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पॉँव फूल गये। परमाल अपने किये पर बहुत पछताया। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी। इस मामले में अगर वह इन नियमों को इतनी सख्ती से पाबन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई। उसने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आई।
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