Friday, 4 March 2016

उपसंहार

         उपसंहार :-

भारत के भाग्य में शुरू से ही फूट रही है, इस फूट के कारण कितने ही घर बर्बाद हो गए थे और और हो रहे है, इस फूट की आग में पृथ्वीराज भी नहीं बच पाय, पृथ्वीराज के अध्यापतन का यह पहला कारण था, इस फूट ने ऐसा भयानक आकार धारण कर लिया था की आपस में विद्रोह ने कितना ही भयानक धूम मचाई और कलह को जन्म दिया, उनके वीरता से कई राजा बहुत दुखित हुए थे, और उन्हें नीचा दिखने में लगे रहते थे,जरा जरा सी बातें में तलवार निकाल लेना और बात बात पर लोगो को मार गिराना पृथ्वीराज को अध्य्पतन की ओर धकेलने लगा था. ये सब बातें आपको पृथ्वीराज के पिछले भागों को पढ़ने से पता चल ही गया होगा. पृथ्वीराज ने तो अपना समाराज्य बढ़ाने के लिए कई राज्यों के राजकुमारी से शादी किया ताकि उन राज्यों के राजाओं को पृथ्वीराज की गुलामी क़ुबूल करनी पड़े,ये सामराज्य बढ़ाने का बहुत साधारण सा तरीका था, पर ये उनके विपरीत ही हुआ, कई राज्यों से लड़ने के बाद जीत तो उनकी ही हुई पर ये जीत उन्हें बहुत महँगी पड़ी, उनके सभी नामी योद्धा मारे जाने लगे. अगर क्षत्रिय जाती में बहुपत्नी का चलन न होता तो पृथ्वीराज के कई योद्धा जीवित रहते और मुहम्मद गौरी कभी भी अपना सामराज्य भारत पर नहीं फैला पाता. पृथ्वीराज ने ग्यारह विवाह किये और कुछ विवाह को छोड़ दे तो ऐसा कोई विवाह नहीं है जिसमे दो चार हज़ार मनुष्यों की प्राणहुती न हुई हो. ये पृथ्वीराज के अध्यापतन का दूसरा कारण था. पृथ्वीराज के अध्यापतन का तीसरा कारण था की पृथ्वीराज जितने ही वीर थे वे उतने ही अन्दर से ह्रदय के कमजोर थे, दया भाव उनमे कूट कूट कर भरे हुए थे, मुहम्मद गौरी के मगरमच्छ के आंसू को समझ नहीं पाए और बार बार उन्हें माफ़ करते चले गए. मानता हूँ की शास्त्र में लिखा है की क्षत्रिये धरम के अनुसार झुके गर्दन पर तलवार नहीं उठाया जाता है, या फिर किसी निहत्थे पर वार नहीं किया जाता है ये गुण तो पृथ्वीराज को याद थे पर शास्त्र के ये बात उन्हें क्यों याद नहीं आये की यदि सांप को मारा जाए तो उसका सर अच्छी तरह से कुचल दिया जाता है उसे अधमरा नहीं छोड़ा जाता वरना वो वापस अवश्य ही काटता है. अध्यापतन का चौथा कारण था की एक वैश्या के फेर में पड़कर आपने वीर सेनापति कैमाश को मार देना बिलकुल ही निराशापूर्ण था.उन्होंने बिना कारण ही चामुंडराय को कारगार में डलवा दिया. इसके अतिरिक्त पृथ्वीराज का ठीक तरीके से राज शाषन न करना और भी कितने सारे कारण थे जिनके कारण उन्हें अपने देश रक्षकों से हाथ धोना पड़ा था. यहाँ तक जो होना था वो तो हो ही गया,पृथ्वीराज के कितने ही वीर संयोगिता हरण में मारे जा चुके थे, पर उस समय भी भारत की भूमि आज की जैसे वीर शुन्य नहीं हुई थी, इतना होने के ब्बव्जूद पृथ्वीराज के पास और भी कितने ही वीर बाकि थे और उनके कारण भारत स्वतंत्रता की सांसे ले रहा था. यदि पृथ्वीराज संयोगिता को लाने के बाद एकदम से उनके प्रेम जाल में न फँसकर राज्य के काम को अच्छी तरह से देखते और राज्य का शाषण किसी और को न दे खुद ही सँभालते और संयोगिता की पास महल में न विराजते तब उनकी हार कभी भी संभव न थी, एक तरह से पृथ्वीराज ने खुद ही अपनी पैर में कुल्हाड़ी मार लिया था, वरन पृथ्वीराज को हरा पाना गौरी के वश में कभी न था. और पृथ्वीराज ही क्यों सभी राजाओं में यही बात उस समय घुस गयी थी जिसके कारण भारत को परतंत्रता का मुंह देखना पड़ा.
पृथ्वीराज का अंत हुआ और इसके साथ ही हिन्दू साम्राज्य का भी अंत हुआ. और समस्त पिथोरागढ़ शोक में डूब गया.सभी को मालूम हो गया की अब दिल्ली में शत्रु किसी भी वक़्त अआते होगे. पृथ्वीराज की मौत की खबर सुनते ही संयोगिता और अनके अन्य रानियों ने सती का राह अपनाया, इधर पृथ्वीराज के पुत्र रेणु सिंह ने मुसलमानों से लड़ता हुआ वीर गतो को प्राप्त किया, और समस्त भारत परतंत्रता की जंजीर में बांध कर रह गया. अन्य कई मुसलमानों की सेना द्वारा दिल्ली लूटी जाने लगी.नगर निवासी के कत्ल किये जाने लगे और कितने ही बेड़ियों में बाढ़ दिए गए. दिल्ली नगरी को स्मशान घाट बना दिया गया. अनेक मुसलमान शाशकों के भारत आने का मार्ग खुल गया था क्योंकि अब उन्हें यहाँ रोकने वाला कोई न था.अजमेर,दिल्ली और कन्नोज को लूटने की बाद मुसलमानों ने बनारस को लूटा,और इस तरह भारत के कितने ही प्रदेश मुसलमानों के अधीन हो गया. इन घटनाओं को ध्यान से देखने पर मालूम होता है की एक अकेला पृथ्वीराज ही भारत पर मुसलमान सामराज्य स्थापित होने के प्रधान बाधक थे. उनकी ही वीरता,धीरता,युद्धनीति,के कारण इतने समय तक भारत में यवन का शासन स्थापीत नहीं हो पाता था. क्योंकि उनकी मृत्यु होते ही क्रमशः सारे राजा का अस्तित्व ख़त्म होने लगा.

अध्यपतन


                                                     अध्यपतन:-

जब पृथ्वीराज संयोगिता को भगा कर दिल्ली ले आये तब वे एकदम से संयोगितामय हो गए,वे उनके प्रेम में बिलकुल ही मुग्ध हो गए,उनके सौन्दर्य जाल में फंसकर पृथ्वीराज ने राज्य का निरिक्षण छोड़ दिया, दरबार में आना जाना छोड़ दिया, अपने वीरों के साथ बातचीत बंद कर दी और दिन भर संयोगिता के साथ महल में रहने लगे, प्रजा अपने राजा की दर्शन को न पाकर हाहाकार मचने लगी. राज्य का भर जैतसिंह को मिला था. हालाँकि जैत सिंह एक बहदूर मनुष्य थे पर इससे क्या होता है जब राज्य का राजा को ही अपने राज्य का हाल लेने का फुरसत नहीं है. परन्तु पृथ्वीराज को इन सबसे कोई मतलब न था, कवी चन्द्र कहते है की इस समय पृथ्वीराज बिलकुल ही कर्तव्यहीन हो गए थे. गौरी तो हमेशा ससे ही अपने अपमान का बदला लेने के लिए तत्पर रहता था, उसके दूत भेष बदल बदल कर दिल्ली नगरी में घूमा करते थे, वे हर समय का खबर अपने सुलतान के पास पहुंचाते थे. गौरी को ये समाचार बार बार मिल रही थी की इस समय पृथ्वीराज अपने राज्य का रक्षा में दंचित नहीं है, उनके राज्य में स्त्रियों की प्रधानता हुई जा रही है, और उनके कई नामी सरदार और सामंत मारे जा चुके है.मुहम्मद गौरी ने तो दरबार में ये भी कह दिया था की जब से मेरी ये हार हुई है तब से मैं ठीक से सोया नहीं हूँ., मैं हमेशा से इसी चिंता में लगा रहता हूँ की पृथ्वीराज से अपनी हार का बदला कैसे लिया जाय. दिल्ली की खबर को स्सुनकर उसने सैनिको को एकत्र करना शुरू कर दिया, थोड़े ही समय में उसने एक बड़ी सेना जुटा कर दिल्ली की ओर चल दिया.जयचंद भी इस बार मुहम्मद गौरी का साथ दिया, भारत वश का एक मात्र राजा जयचंद ही था जिसने यवनी का साथ दिया था अपने ही देश के राजा के खिलाफ, ये समय भारत वश के लिए बहुत ही दुखित कर देने वाला था, भारत का एक मात्र राजा जो उस यवनी को रोक सकता था संयोगिता की प्रेम जाल में फंसा था, और भारत में काल बनकर गौरी की सेना बरही आ रही थी ऐसे में वहां की प्रजा और सामंत घबराते नहीं तो और क्या करते.बहुत सारे पडोसी राजा ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर उनकी सुनता कौन है. यदि कोई समाचार भेजता तो वो समाचार पृथ्वीराज तक पहुँचने भी न पाता था.और भारत वश को इस आध्यापत में डालने का काम पृथ्वीराज के प्रेम प्रसंग ने कर दिया था. सामंत उन्हें पत्र भेज भेज कर कई तरह से समझाने की कोशिश करते, कई सामंतों ने ये प्रयत्न किया की पत्र उनके पास तक पहुंच जाए, पर रहस्यमयी तरीके से पत्र बीच में ही गायब हो जाते.फिर चंदरबरदाई ने उन्हें एक पुर्जा भेजा जिसमे लिखा था की तुम तो महल में यहाँ आनंद कर रहे हो पर मुहम्मद गौरी तुमपर आक्रमण करने यहाँ आ रहा है, पृथ्वीराज ने वो पुर्जा पढ़ा भी लेकिन झल्ला कर उसे फाड़ कर फेंक दिया और हतास होकर बैठ गए, क्योंकि उन्होंने एक दिन पहले ही भयानक स्वपन्न देखा था जो की उनकी पतन का सूचना दे रहा था. धीरे धीरे पृथ्वीराज की विलासिता का समाचार रावल के समरसिंह तक पहुँच गया. ठीक उसी समय समर सिंह ने भी एक भयानक सपना देखा था जिससे उन्हें यकींन हो गया था की भारत का पतन का समय आ चूका है.इसलिए जैसे ही उन्होंने दिल्ली का समाचार सुना वे स्वयं राज गद्दी अपने पुत्र को सौंप कर दिल्ली की ओर चल दिए.वे अपने साथ एक बहुत ही बड़ी विशाल सेना भी लेकर आये क्योंकि उन्हें पता चल गया था की गौरी भारत पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है. जब समर सिंह दिल्ली आये तब उनकी आगवानी कौन करता पृथ्वीराज तो महल में थे,तब संयोगिता ने आदमी भेज कर उनका आदर सत्कार करवाया था. उनके आने के कई दिन के बाद पृथ्वीराज को समर सिंह के आने की खबर मिली. वे पहले तो उनसे मिलने गए फिर उन्होंने समर सिंह को विदाई देनी चाही.परन्तु समर सिंह हठ कर के रह गए. यदि कोई दूसरा राजा होता तो अपना अपमान समझ कर चला जाता लेकिन समर सिंह दूरदर्शी,बुद्धिमान,और सहनशील थे.उन्होंने अपने अपमान का चिंता छोड़ देश के हित के बारे में सोचा. जब वे पृथ्वीराज से मिलने के लिए गए तब उन्होंने बड़े ही मीठे शब्दों में बहुत कुछ समझाया, आश्वासन दिया. पर पृथ्वीराज इस समय भी हताश से हो रहे थे, चन्द्र का पत्र,स्वप्न, समर सिंह का आगमन,और ठीक उसी समय मुहम्मद गौरी का आक्रमण ये सभी बातें पृथ्वीराज को दहला रही थी. पृथ्वीराज अब अपनी करनी पर पछताने लगे थे, परन्तु अब क्या हो सकता है,कुछ भी हो समर सिंह ने तरह तरह से पृथ्वीराज को लज्जित किया. पृथ्वीराज ने समर सिंह के कहे अनुसार ही कार्य करना सही समझा. आपको याद होगा की पृथ्वीराज ने चामुंडराय को कैद कर रखा था, समरसिंह ने सबसे पहले चामुंड राय को छोड़ देने को कहा. पृथ्वीराज ने उनकी आज्ञा मान ली और चामुंड राय को छोड़ने के लिए अपने सामंतों को भेज दिया, वे चामुंडराय कके पास संक्कोच वश नहीं जा पाए, पर जब चामुंडराय नहीं माना तब पृथ्वीराज और समर सिंह स्वयं ही उनके पास गए, पृथ्वीराज ने अपने कमर की तलवार से उनके बेड़ियों को काट दिया और वो तलवार उन्हें दे दिया, इसके साथ ही उन्होंने चामुंडराय से अपने किये के लिए माफ़ी भी मांगी,इसपर चामुंडराय बहुत खुश हो गया.चामुंडराय के रिहा होने के कारण सारी दिल्ली नगरी खुस हो गयी. दुसरे ही दिन दरबार लगा और विचार होने लगा की क्या करना चाहिए, सभों की सलाह से विचार ये निकला की दिल्ली का शासन भार पृथ्वीराज के पुत्र रेनुसिंह को सौंपकर युद्ध के लिए निकल जाना चाहिए. लेकिन जब समय विपरीत होता है तब सबकुछ विपरीत ही हो जाता है.इस संकट में पृथ्वीराज का एक सामंत हहुलिराय आपस की वाद विवाद के कारण शत्रु के पक्ष से जा मिला. हिन्दुओं ने सदा से ही धर्म युद्ध किया है उन्होंने कभी भी छल युद्ध नहीं किया है,इसी धर्म युद्ध के कारण पृथ्वीराज और समर सिंह अपनी सेना समेत तारायन की ओर चल दिए. वीर पत्नी संयोगिता ने आज अपने हाथों से अपने पति पृथ्वीराज को रण से सुसज्जित किया. यद्यपि उसका ह्रदय काँप रहा था,उसे स्पष्ट मालूम था की उनके पति सदा के लिया जा रहे है. उसने अपनी अधीरता किसी भी प्रकार से पृथ्वीराज को नहीं दिखाई,उसे पूरा विश्वास था की जीत आये तो ठीक वरना हम दोनों सूर्यलोक में तो अवश्य ही मिलेंगे. संयोगिता से विदा लेकर पृथ्वीराज रणक्षेत्र की ओर चल पड़े.पानीपत के मैदान में ही गौरी को रोकने का विचार ठहरा. इधर से पृथ्वीराज अपनी सेना लिए आगे बढ़े उधर से मुहम्मद गौरी आया पहुंचा.दोनों की सेना तेरायन के युद्ध स्थल में जा मिली. इस समय मुहम्मद गौरी ने फिर चाल से काम लिया, उसने अपने एक दूत को भेज कर कहा की अगर तुम इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लो और अपने राज्य का कुछ अंश दे दो तो हम तुम्हे माफ़ कर सकते है. इस पर पृथ्वीराज ने बीते हुए बातों और पराजय को फिर से याद करने को कहा और लौट जाने की बात कही.उसने दूत को बहुत ही गर्वित अक्षरों में लिखा एक पत्र देकर उतर दिया. तब उसने धोखा देने के लिए ये उतर लिख कर भेजवा दिया की मैं तो केवल सेनापति हूँ मेरा भाई राजा है.अतः उनकी आज्ञा का पालन करने कके लिए मैं बाध्य हूँ.आप मुझे कुछ समय दे ताकि मैं उनसे लौटने का आदेश मंगवा सकूं.उनकी आज्ञा की बगैर हम लौट नहीं सकते है. जब तक उतर न आये तबतक युद्ध स्थगित रहे.इस उतर पर समरसिंह को विश्वास नहीं हुआ. इसलिए उन्होंने उसकी सेना को हमेशा प्रस्तुत रहने का आज्ञा दिया.सेना प्रस्तुत भी हुई, लेकिन शाहबुद्दीन गौरी की ओर से आक्रमण नहीं हुआ. राजपूत शत्रु बिना सावधान किये आक्रमण नहीं करते है बहुत दिनों से यही निति चली आ रही है इन्ही नीतियों के कारण राजपूतों को कई बार हार का सामना भी करना पड़ा है. इस युद्ध में पृथ्वीराज के तरफ से तिरासी हज़ार थी और मुहम्मद गौरी की ओर से दस लाख की एक विशाल सेना थी.रासो में एक कथन दिया गया है की जब कविचन्द्र ने हहुलीराय जो की पृथ्वीराज का एक सामंत था उसे समझाने के लिए गया था तब उसने कवी चन्द्र को जालपा देवी के मंदिर में कैद कर दिया था. यह युद्ध सन 1192 में हुई थी. दोनों की सेना नदी के तट पर अपने अपने स्वामियों की आज्ञा का इंतज़ार कर रही थी., समर सिंह घूम घूम कर अपने सेना में जोश बढ़ाने का काम करने लगे थे.रात हो गयी अब धीरे राजपूत सेना को मुहम्मद गौरी के भेजे हुए पत्र पर विश्वास हो गया था की यवनी सेना अभी आक्रमण नहीं करेगी. राजपूत सेना निश्चिंत होकर अपने अपने शिविरों में जाने लगी थी. गौरी ने यहाँ पर एक और चाल चली की उसने अपनी ओर आग को जला रहने दिया ताकि हिन्दुओं को लगे की गौरी की सेना वहीँ है और वो अभी आक्रमण नहीं करेगी, इसी बीच गौरी ने अपनी सेना को चुपचाप तैयार होने के लिए कह दिया. उसने अपनी सेना को अच्छी तरह प्रस्तुत कर लिया और एकदम सुबह जब रात सबसे ज्यादा घनी होती है उस समय सभी हिन्दू सेना निद्रा की गोद में थे, और कुछ नित्यक्रिया का काम कर रहे थे उस समय यवनी ने एकाएक आक्रमण कर दिया था, यद्यपि उसी अवस्था में हिन्दू सेना भी युद्ध के लिए तेयार हो गयी. धीरे धीरे घोर युद्ध होनी लगा, महाराज पृथ्वीराज और समर सिंह घोड़े में बैठकर अपनी सेना का निरिक्षण करते हुए इधर उधर चक्कर लगाने लगे. थोड़ी ही देर में बहुत ही घोर युद्ध होने लगा, कोई भी न अपना और पराया दिखने लगा. युद्ध करते करते हिन्दुओं की सेना का बल घटने लगा. युद्ध करते करते पृथ्वीराज पूरी तरह से शत्रुओं के बीच जा फंसे वहां से निकलना असंभव सा लगने लगा,समर सिंह पृथ्वीराज चौहान और वीर हिन्दुओं ने शेर की तरह मुसलमान सेना में टूट पड़े, पृथ्वीराज ने अकेले ही मुसलमानों के दांत खट्टे करने लगे पर इस बार मुहम्मद गौरी एक विशाल सेना को लेकर आया था, पृथ्वीराज चौहान मुसलमानों को एक एक कर के काटते गए और वो अपनी स्वामि की आज्ञा पाकर अपने प्राण देते गए, पृथ्वीराज इतनी बुरी तरह घिर गए थे की वहां से निकल पाना संभव न था, इसे देखकर जैतसिंह अपना घोडा लिए वहां आ पहुंचे और चालाकी से पृथ्वीराज के माथे का छत्र उतार कर अपने माथे में रख लिया, जैत सिंह ने भी बड़ी वीरता पुर्वक युद्ध की और पृथ्वीराज समझ कर यवनी ने उन्हें मार डाला, इधर पृथ्वीराज यवनी सेना से अकेले जूझ रहे थे उनकी मदद करने वाला कोई न था. आज के युद्ध में गुरुराम भी युद्ध करते करते वीरगति को प्राप्त किये, दोपहर होते होते चामुंडराय भी वीर गति को प्राप्त कर लिए. आज के युद्ध में राजपूतों ने अपनी प्राणों की ममता को छोड़ कर युद्ध करने लगे थे. उनके प्रक्रम को देखकर मुसलमान सेना भी उनकी लोहा मान लिया था, पर मुसलमान सेना ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. आज का युद्ध में भारत हमेशा के लिए परतंत्रता की जंजीर में बंधने वाला था शायद इसलिए समरसिंह भी लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त कर गए. इधर पृथ्वीराज चौहान अब अकेले ही दुश्मनों से लड़ाई कर रहे थे उनके साथ अब केवल थोड़ी बहुत हिन्दू सेना ही बच गयी थी, उनकी शेर सी गर्जन और तलवार की खन खन सुनकर ही दुश्मनों के होश उड़ने लगे थे पर समरसिंह के मौत के बाद वो भी हताश होने लगे. पृथ्वीराज बिना रुके ही लगातार युद्ध किये जा रहे थे संध्या हो चुकी थी लेकिन आज पृथ्वीराज को रोकना उन दस लाख सेना को भी भारी पड़ रहा था, लेकिन आज का दिन पृथ्वीराज का नहीं था, वो इस तरह से चारों ओर घिर गए थे की उनका जीवित बच पाना बहुत मुस्किल हो गया था, लेकिन वो हार नहीं मानने वालों में से थे, दिन भर की थकान के बाद वो अब थकने लगे थे और कई सारे दुश्मनों की चोट खा कर वो घायल हो गए, मुहम्मद गौरी ने तुरंत उन्हें पकड़ लेने का आदेश दे दिया. इस तरह से भारत का सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो गया. अब गौरी ने पृथ्वीराज को पकड़ कर गजनी ले आया और उन्हें कैदखाने में डाल दिया. युद्ध के खत्म होते ही गौरी ने जयचंद और गौरी का सामना चंदवर नामक स्थान में हो गया और जयचंद को मार कन्नोज पर अधिकार कर लिया और फिर दिल्ली के कई भागों पर भी अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया. पृथ्वीराज ने अपने छुटकारे के लिए पहले तो बहुत उपाय किये कई बार वो वहां से भागना चाहे पर वे असफल हो गए. अंत में उन्होंने भोजन को ही त्याग दिया. शाहबुद्दीन उसे समझाने के लिए खुद ही उनके पास गया पर शाहबुद्दीन को देखते ही उनकी आंखे लाल हो गयी, और उसे देखकर कटु वाक्य कहने लगे,उन्होंने सहाबुद्दीन को बीते हुए पल को याद कराया की किस तरह से तुमने मेरे पैर में गिर कर माफ़ी मांगी और मैंने तुम्हे माफ़ किया, ये सब बातें गौरी को अछि नहीं लगी,उसने पृथ्वीराज को आदेश दिया की तुम अपनी आंखे झुका कर हमसे बात करो,पर वीर पृथ्वीराज ने अपनी आंखे नहीं झुकी. उसने उसी समय पृथ्वीराज की दोनों आंखे लोहे की गरम सलाखे से निकलवा दी. आंखे न रहने पर अब पृथ्वीराज बहुत ही दीन अवस्था में चले गए. उन्हें अब अपने किये पर पछतावा होने लगा की बिना मतलब ही मैंने कैमाश को मार दिया, कई रानियों के कारण अपने वीर सामंतों को कटवा दिया, और संयोगिता के कारण शाषण तक त्याग दिया. उन्हें अपने किये पर बहुत पछतावा होने लगा. युद्ध के ख़तम होने के कई दिन बाद चन्द्रबरदाई किसी तरह मंदिर से निकले, और सीधे दिल्ली की ओर चले गए, वहां पर उन्होंने अपने स्वामी के बारे में सुने और बहुत दुखित हुए, अब चंदरबरदाई ने बहुत मुस्किल से किसी तरह गजनी पहुंचे वहां पर उन्होंने अपने शब्द जाल से मुहम्मद गौरी को प्रसन्न किये और पृथ्वीराज से मिलने की आज्ञा प्राप्त कर लिए. पृथ्वीराज से मिलते ही उनकी दशा को देख कर वो रो पड़े और बहुत ही व्याकुल हो उठे.पृथ्वीराज ने सारी कहानी अपने मित्र को सुना दी. उसी समय उनके मन में शहाबुद्दीन से बदला लेने का विचार उनके ह्रदय में आया. कवी चन्द्र ने गौरी को अपने वाकया जाल में फंसाया और कहा की पृथ्वीराज शब्दभेदी बाण विद्या जानते है उन्होंने बचपन में ही कहा था की ये विद्या मुझे जरुर दिखायेंगे पर इसका मौका आज तक नहीं मिला है, अब अआप भी देखे और मैं भी देख कर अपनी इच्छा पूरी करूँगा. थोड़े से तर्क वितर्क के बाद कुछ मंत्रियों ने अनुमति देने और कुछ ने न देने की बातें भी कही.परन्तु गौरी के मस्तिस्क में चन्द्रबरदाई की ऐसा कौतोहल पड़ा की उसने किसी की बात न मानी. पृथ्वीराज बहुत ही दुर्बल हो रहे थे इसलिए चन्द्र की प्राथना के बाद उन्हें कुछ दिनों तक पौष्टिक आहार दिए गए, और फिर तमाशा के लिए सब इतेजाम भी किये गए.कवी चन्द्र ने चुपचाप ही इस तमाशा का उद्देश्य पृथ्वीराज को समझा दिया गया था.कवी चन्द्र ने शहाबुद्दीन गौरी को ते बात भी बता दी थी की यदि आप आज्ञा नहीं देंगे तो पृथ्वीराज बाण नहीं छोड़ेगे क्योंकि पृथ्वीराज एक महाराज है और वो इस वक़्त आपके कैदी है इसलिए वो केवल एक महाराज की ही आज्ञा मानेंगे और किसी की नहीं.अतः बाण चलाने की आज्ञा आपको ही देनी पड़ेगी. पृथ्वीराज चौहान को दरबार में बुलाया गया और धनुष बाण दिया गया ज्यों ही उन्होंने बाण को ताना त्यों ही वो धनुष टूट गया,पृथ्वीराज ने कहा की एक राजपूत के हाथों का बल एक राजपूत का धनुष ही सह सकता है इसलिए मुझे अपना धनुष चाहिए. पृथ्वीराज को उनका धनुष दिया गया. अपने धनुष को हाथों में पाकर पृथ्वीराज खुश. हो गए. उन्होंने उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी. इस वक़्त कवी चन्द्र ने अपने कविता के मध्यम से बहुत ही ओजस्वनी भाषा में खा की इस वक़्त आपके हाथ में धनुष, सामने तवा और बायीं ओर शाह बैठा है.आप अपने ह्रदय को मज्बूओत करके इस मौके को उपयोग में लाइए, पृथ्वीराज ने कहा सच ऐसा मौका फिर न मिलेगा, मैं अवश्य तुम्हारे कथनानुसार कार्य करूँगा, कालग्रस्त शाहबुद्दीन ने पृथ्वीराज को बाण चलने की आज्ञा दे दी. चरों ओर से शत्रुओं से घिरे पृथ्वीराज अकड़ कर खड़े हो गए, और शहाबुद्दीन की आज्ञा का इन्तेजार करने लगे.पहले दो तीन वार तवों पर पृथ्वीराज ने किया और फिर अगला वार शहाबुद्दीन के आदेश देते ही पृथ्वीराज ने घूमकर शहाबुद्दीन पर कर दिया. यह बाण शाहबुद्दीन के ठीक मुंह में लगा और तालू फोड़ कर दूसरी ओर निकल गया. गौरी जहाँ तहां छटपटाता और हाथ पैर पटकता हुआ रह गया. कुछ देर तक तो चारों ओर सन्नाटा छा गया लेकिन फिर हाहाकार मच गया सभी लोग उन्हें मारने के लिए दौड़ पड़े,. कवी चन्द्र ने अपनी जीत का समाचार प्रिथ्व्विराज को सुनाया और फिर चन्द्र बरदाई ने अपनी छुरी निकाल कर अपने पेट में भोंक ली और फिर उसी छुरी को निकाल कर पृथ्वीराज के हाथों में दे दी और पृथ्वीराज ने उसे अपने सीने में भिनक ली इस तरह से आत्म्हत्या कर पृथ्वीराज का अंत हुआ. अंग्रेजो ने पृथ्वीराज के मौत के बारे में लिखा है की उनकी मौत तेरायन के दुसरे युद्ध में ही हो गयी थी,जिसे बहुत बाद में भारत के प्रति सम्मान रखने वाली मुसलमान लेखिका ने गलत साबित करते हुए पृथ्वीराज और चंदरबरदाई की कब्र को गजनी में दिखाते हुए चंदरबरदाई के लिखे पृथ्वीराज रासो को ही सच बताया है.इसके बाद कई मुसलमान शाशकों ने दिल्ली को उजाड़कर सारे भारतवर्ष में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया.

पृथ्वीराज और संयोगिता का मिलन

     पृथ्वीराज और संयोगिता का मिलन :-

जयचंद के सैनिकों ने तुरंत ही पृथ्वीराज के निवास स्थल को घेरने के लिए चल पड़ी जैसे ही ये बात पृथ्वीराज के एक सामंत लाखिराय को मिली वो तुरंत ही उनसे युद्ध करने के लिए अग्रसर हो गए. उन्होंने बहुत ही वीरता से युद्ध किया इस युद्ध में पृथ्वीराज का सामंत लाखिराय मारा गया और जयचंद का मंत्री सुमंत और सह्समल समेत कई सामंत भी मारा गया. भांजे और अपने राजमंत्री की मौत और हार का समाचार सुनकर जयचंद और भी क्रोधित हो उठा और अपने हिन्दू और मुसलमान सेना को आक्रमण करने का आदेश भी दे दिया, और साथ ही वो स्वयं भी युद्ध क्षेत्र में जा पहुंचा. युद्ध आरम्भ हो गया, इसबार पृथ्वीराज ने अपने सेना का भार पंगुराय को देकर स्वयं पृथ्वीराज ने संयोगिता को लाने के लिए चले गए. पृथ्वीराज के सामंत ने उन्हें अकेले जाने से रोका पर पृथ्वीराज उनका कहना न मानकर घोड़े में बठकर अकेले ही कन्नोज जा पहुंचे. पृथ्वीराज तो उधर चले गए और इधर दिल्ली में शत्रु सेना चन्द्र के निवास स्थल तक जा पहुंची.जयचंद्र दिल्ली में अपनी सेना का प्रबंध कर लौट आया. जयचंद की सेना ने चौहान सेना को चारों ओर से घेर लिया बहुत ही भयानक युद्ध होने लगा. जयचंद्र के लगभग दो हज़ार योद्धा मारे गए, पृथ्वीराज के भी कई सामंत और सैनिक मारे गए. पृथ्वीराज घुमते फिरते ठीक उसी स्थान में जा पहुंचे जहाँ संयोगिता थी. महल की दासियाँ झांक झांक कर पृथ्वीराज को देखने लगी. अब वे गंगातट में बैठ कर मछलियों का तमाशा देखने लगे. संयोगिता अपने सहेलियों के साथ पहले से ही पृथ्वीराज को गंगातट में बैठे हुए देख रही थी. संयोगिता पृथ्वीराज को पहचानती नहीं थी. संयोगिता पृथ्वीराज का कामदेव सा रूप देखकर अपने सुध बुध भूल चुकी थी. उनमे से कुछ सहेलियों ने उन्हें बताया की लगता है यही महाराज पृथ्वीराज चौहान है, क्या उनका परिचय पुछा जाए. संयोगिता ने कहा की मेरा भी मन यही कहता है की यही मेरे प्राणेश्वर पृथ्वीराज है, मेरी हाल तो सांप-छुछुंदर सी हो गयी है इधर जब मैं अपने माता पिता को देखती हूँ तो उनके प्रति वेदना उत्पन्न हो जाती है और जब पृथ्वीराज के बारे में सोचती हूँ तो उनसे मिलने की इच्छा होती है. इसी बीच पृथ्वीराज के घोड़े के गले की माला की एक मोती टूटकर गंगा में लुडकता हुआ जा गिरा.मछलियाँ उसे खाने का पदार्थ समझ कर एक दुसरे को हटाती हुई उस मोती की ओर लपक पड़ी और उसे खाने का प्रयत्न करने लगी.इसे देखकर पृथ्वीराज ने उस माला के सभी मोती को गंगा में एक एक कर डालने लगे, संयोगिता भी ये सारी चीजें देख रही थी, उसने अब अपनी दासी को पृथ्वीराज के पास एक मोतियों से भरा थाल देकर भेज दिया, और वो दासी ठीक पृथ्वीराज के पीछे खड़ी हो गयी, अब वो दासी पृथ्वीराज को मुट्टी भर भर के मोतियाँ देने लगी और पृथ्वीराज मछलियों में खोय सभी मोतियाँ गंगा में डालते चले गए, जब सारे मोती ख़तम हो गए तब दासी ने अपने गले का हार खोलकर पृथ्वीराज को दे दिया हाथ में हार देखकर पृथ्वीराज चोंक गये, जब उन्होंने पीछे मुड़ा तो उन्होंने एक स्त्री को देखा और फिर पृथ्वीराज उससे पूछने लगे की तू कौन है? तब दासी ने अपना परिचय देते हुए कहा की मैं महाराज जयचंद की राजकुमारी संयोगिता की दासी हूँ, पृथ्वीराज ने भी अपना परिचय दे दिया, इतना सुनते ही उस दासी ने पृथ्वीराज को संयोगिता के तरफ इशारा कर दिया, संयोगिता उस समय खिड़की से पृथ्वीराज को ही देख रही थी,संयोगिता को देखते ही पृथ्वीराज की बहुत ही विचित्र दशा हो गयी. दासी ने भी संयोगिता को इशारे में सारी बातें बता दी. संयोगिता ने सभी से सलाहकार पृथ्वीराज को महल में बुला लिया और यहीं पर उन्होंने गंधर्व विवाह किया. अब वहां से घर जाने का समय हो गया था क्योंकि उन्हें मालूम था की उनके सामंत अभी भी युद्ध कर रहे थे, घर जाने के नाम से ही संयोगिता व्याकुल हो उठी और विलाप करने लगी, उनकी दशा बहुत ही दींन हो गयी.पृथ्वीराज भी बहुत व्याकुल हो उठे पर उन्हें वहां ठहरना उचित न लगा,इतने में ही गुरुराम पृथ्वीराज को सामने से आते हुए दिखाई दिए, इन्हें देखकर पृथ्वीराज के जी में जी आया, गुरुराम को पृथ्वीराज की तलाश में भेजा गया था. गुरुराम ने पृथ्वीराज को कहा की अआप तो यहाँ श्रींगाररस में डूबे हुए है परन्तु क्या आपको पता है की लक्खिराय,इंदरमन,कुरंग, दुर्जनराय, सलाख सिंह,भीम राय, और न जाने कितने ही सामंत मारे जा चुके है, इतना कहकर उन्होंने कान्हा को दिया पत्र उनके हाथों में थमा दिया, पत्र पढ़कर पृथ्वीराज वहां से चल दिए. पृथ्वीराज को रस्ते में ही जयचंद की सेना ने घेर लिया. इस स्थान में पृथ्वीराज ने वीरता दिखाते हुए बखूबी उतने सारे सैनिकों का मुकाबला किया, गुरुराम ब्राह्मण होते हुए भी तलवार निकाल कर युद्ध में कूद पड़े, वे दोनों लड़ते लड़ते कान्हा के पास जा मिले. कान्हा से मिलते ही पृथ्वीराज ने सारी कहानी कान्हा से जा कहे, इस पर कान्हा ने कहा ये क्या महाराज, ये आप क्या कर आये, ये काम तो आप बहुत ही अनुचित किया,दुल्हिन को वहीँ छोड़ आये, या तो आपका उनका हाथ ही नहीं पकड़ना था, और अगर पकड़ लिया था तो छोड़ कर न आना था.पृथ्वीराज कान्हा की बात मान कर फिर लौट आये.साथ में वीरवर गोयन्दराय भी थे. पृथ्वीराज महल में जाकर संयोगिता को लेकर फिर अपने स्थान की ओर बढ़े. ये समाचार सारे कन्नोज में जंगल की आग की तरह तुरंत ही फ़ैल गयी की पृथ्वीराज संयोगिता को लिए जा रहे रहे है.जयचंद की सेना पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ी. इससमय कन्नोज राज्य में जयचंद का रावण नामक एक सरदार था, उसने जयचंद के आदेशानुसार सारे कन्नोज में ये बात फैला दी की पृथ्वीराज जहाँ मिल जाए उसे पकड़ कर मार दिया जाए. जयचंद ने पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए अपनी समस्त सेना को जल्द से जल्द उपस्थित होने का आदेश दे दिया. उसकी तय्यारी देखते ही सारे कन्नोज वाशी कहने लगे थे की आज पृथ्वीराज का जिन्दा कन्नोज से निकल जाना असंभव है. राह में ही जयचंद की सेना का सामना पृथ्वीराज से फिर से हो गया. जयचंद की सेना को देखकर गोयन्दराय ने इस समय अतुल्य प्रकारम दिखाया, उसने दोनों हाथों में तलवार लेकर जयचंद की सेना में इस तरह टूट पड़ा और उन्हें काटने लगा की जैसे कोई गाजर मूली काटता हो, गोयन्दराय ने अकेले ही शत्रु की सेना में हलचल मचा दी, उसने जयचंद के कई सैनिकों को अकेले ही मार गिराया,अंत में गोयन्दराय इस वीरता के बावजूद वीरगति को प्राप्त किया, पृथ्वीराज ने संयोगिता को एक किनारे में कर खुद भी युद्ध में उतर गए और वीरता के साथ लड़ने लगे,पृथ्वीराज के अलाव पंज्जूराय,केहरीराय, कएंथिर परमार,पिपराय,आदि भी युद्ध में पराकर्म दिखने लगे. पंज्जुराय भी मारा गया, लेकिन मरने से पहले उसने जयचंद की मुसलमान सेना को बहुत हानि पहुँचाया.अब पुयांदिर कान्हा के साथ युद्ध भूमि में आकर पृथ्वीराज की मदद करने लगा, एक एक कर पृथ्वीराज के कई सामंत मरने लगे, पुयांदीर ने भी शाम तक युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त किये. रात हो चुकी थी लेकिन आज युद्ध थमने का नाम नहीं ले रही थी. अब कान्हा ने अपना बहुत ही परक्रम दिखाया. आज के युद्ध में कान्हा ने जैसा प्रक्रम दिखाया है उसे देखकर चंदरबरदाई ने बहुत ही ज्वलंत भाषा में लिखा है की कान्हा की तलवार का घाव खाकर मेघ के सामान शरीर वाले हाथी और शत्रु के सेना मेघ के सामान ही गरज उठते थे. धीरे धीरे रात गहरी हुई और युद्ध थम गया, सब सामंतों ने संयोगिता समेत पृथ्वीराज को बीच में किया और बैठकर धीरे धीरे ये विचारने लगे की आगे क्या करना है.सभी सामंतों ने चंदरबरदाई को दोष देने लगे की इसी के सच बोलने के गुण के कारण हम पर इतनी बड़ी विपदा आई है. पृथ्वीराज ने सबको समझाया. इस समय सभी सामंतों की लाश को एक जगह एकत्र किया जाने लगा, पृथ्वीराज उन्हें देखकर अपने आप को रोक नहीं पाए और और जिस जगह में लाश रखी थी उस जगह जाकर उनसे लिपट लिपट कर रोने लगे और अपना माथा पटकने लगे. पृथ्वीराज की दुर्गति देखकर सारा माहोल शोक में डूब गया, पृथ्वीराज का रो रो कर जब बहुत ही बुरा हाल हो गया तब चन्द्रबरदाई ने उन्हें समझाने को कोशिश की कि जो होना था वो तो हो गया अब आगे के लिए क्या विचार है.सभी सामंतों ने ये विचार किया की अभी जैसे बन पड़े महाराज को बेदाग़ दिल्ली पहुंचा देना चाहिए,इसके बाद हम दुश्मन के सेना को समझ लेंगे अगर हम सबको भी वीरगति को प्राप्त करना पड़े तो कोई बात नहीं सीधे स्वर्ग पहुंचेंगे. अब सामंत उन्हें समझाने लगे की आप संयोगिता को लेकर रात्रि के अँधेरे में निकल जाए, सभी सामंत पृथ्वीराज को समझा कर थक गए पर वो एक न माने, उनके सामंत जितना समझाते वो उतना ही उनपर बिगड़ते. उनकी ये हालत देखकर सभी सामंत बहुत दुखी हुए. सुबह होते ही पृथ्वीराज घोड़े पर सवार हुए संयोगिता उनके पीछे जा बैठी,सारे सिपाहीगण और सामंत उन्हें चारूं ओर से घेरे हुए दिल्ली की ओर अग्रसर हुए,इधर कन्नोज की सेना उनको राह में गिरफ्तार करने के लिए बहुत ही वेग से बढ़ी. कन्नोज सेना पृथ्वीराज को पकड़ना चाहती और सभी सामंतगण उनकी रक्षा किये जा रहे थे. पृथ्वीराज की सेना एक घेरा बनाये हुए दिल्ली की ओर चली जा रही थी, जयचंद की सेना बराबर उनके पीछा करती जा रही थी, इस तरह से युद्ध करते करते कान्हा भी वीरगति को प्राप्त किया. इस युद्ध में पृथ्वीराज के चौसठ सामंत वीरगति को प्राप्त किये. और बहुत ही कठिनता से दिल्ली पहुँच गए. इसप्रकार से पृथ्वीराज अपने राज्य की इतने मजबूत स्तंभों को गंवाकर संयोगिता का हरण किया.



संयोगिता हरण

                                                            संयोगिता हरण:-


महोवा का युद्ध समाप्त हो चूका था, महोवा तथा कलिकंजर पर पृथ्वीराज का अधिकार हो गया था, उन्होंने केवल महोवा को अपने अधिकार में लेकर करद राज्य बना कर वापस परमार को सौंप दिया, तारायन के युद्ध में भी विजयलक्ष्मी पृथ्वीराज को वरमाला पहना ही चुकी थी. इस विजय के कारण दिल्ली में कुछ दिनों तक उत्सव मनाई जाने लगी थी. इस धूमधाम और पृथ्वीराज के बार बार जीत के कारण जयचंद मन ही मन जल रहा था, साथ ही साथ संयोगिता ने जो पृथ्वीराज के कारण जयचंद का जो अपमान किया था उससे उसका माथा और भी झुक गया था. इधर पृथ्वीराज के मन में संयोगिता को पाने की इच्छा बढ़ती ही जा रही थी, ब्राह्मणों ने पृथ्वीराज को ये खबर दे दी की संयोगिता को जयचंद ने गंगा किनारे किसी महल में कैद कर रखा है. पृथ्वीराज ने अपने मित्र चंदरबरदाई को कन्नोज की राजधानी राठौर चलने का आग्रह किया, कवि चन्द्र ने उन्हें बहुत समझाना चाहा की जयचंद बहुत ही बलवान राजा है, उसने थोड़े से ही सेना के साथ दिल्ली नगरी के सैंकड़ो गावों को जला दिया और लूट लिया था उसने कई तरह से आपकी प्रजा को कष्ट पहुंचाया अतः आपका वहां जाना किसी भी तरह से उचित नहीं है. इतना समझाने पर भी पृथ्वीराज ने कवी चन्द्र की एक ना मानी, अंत में लाचार होकर उन्हें पृथ्वीराज के साथ ही जाना पड़ा. इसके कुछ दिन बाद एक शुभ मुह्रुत देखकर पृथ्वीराज, चंदरबरदाई और अपने कुछ सामंतों के साथ वो भेष बदलकर कन्नोज की ओर चल दिए उनके साथ कुछ थोड़ी सेना भी थी. जिस समय वे कन्नोज की ओर निकले थे उस समय कई सारे अपशकुन हुए थे, परन्तु पृथ्वीराज अपने सामंतों के मना करने पर भी कन्नोज की ओर अग्रसर होते चले गए, कभी कभी मनुष्य को इश्वर भी कई तरह से समय असमय की बातें बताने की कोशिश करता है पर ये तो मनुष्यों पर निर्भर है की वो उनकी बात मानता है या नहीं. इन्ही कार्यों का नाम] शकुन और अपशकुन रखा गया है. पृथ्वीराज के समोंतों को ये एहसास हो गया था की कुछ बहुत गलत होने वाला है पर पृथ्वीराज के सामने कोई भी कुछ बोलने से कतरा रहा था. पृथ्वीराज ने कन्नोज पहुँच कर अपने बदले हुए भेष में ही कन्नोज राज्य घूमा. जयचंद के पास तीन लाख घुड़ सवार, एक लाख हाथी और दस लाख पैदल सेना थी जो की भारतवर्ष की एक बहुत ही शक्तिशाली राज्य थी. पृथ्वीराज ने जयचंद के इन सैनिक बल और दस हजारी सेना को देखा जो राज्य का स्तंभ स्वरूप कड़ी थी, इसे देखकर पृथ्वीराज का विशाल ह्रदय भी कांप उठा, परन्तु अब क्या हो सकता है जिस काम के लिए घर से निकले है उसे तो अब पूरा करना ही था. कवि चन्द्र पृथ्वीराज को लिए जयचंद्र के द्वार के फाटक पर पहुँच गए, जयचंद्र के पास कवी चन्द्र के आने की खबर पहुंची, जयचंद्र चंदरबरदाई के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था, जयचन्द्र वीरों और कवियों की सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ता था इस लिए वो अपने दरबार के कुछ कवियों को कवी चन्द्र के पास भेज कर पहले उनकी परीक्षा करवाई और फिर दरबार में बुला लिया. दरबार में कवी चन्द्र ने जयचंद्र के पूछे हुए कितने ही सवालों का जवाब दिया. चन्द्रबरदाई ने कहा:-
”जहाँ वंश छतीस आवे हुंकारे.
तहां एक चहूवान पृथ्वीराज टारे
. कवि चन्द्र के ये अंतिम पद जयचंद्र के ह्रदय में तीर सा जा चुभे उसके नेत्र लाल हो गए. वह भयानक रूप से क्रोधित हो उठा, कवि चन्द्र ने पृथ्वीराज की प्रसंसा में इतने जोरदार सब्द कहे थे की वहां मौजूद सभी लोग स्तब्ध होकर कवी चन्द्र और जयचंद को देखने लगे थे. जयचंद इर्श्यन्वित हो उठा उसके छाती में सांप लोटने लगे उसने एक लम्बी ठंडी सांस भरी और कहा-
“पृथ्वीराज अगर मेरे सामने आये तो बताऊँ”
. पृथ्वीराज चन्द्रबरदाई के सेवक के रूप में पहले से ही पीछे खड़े थे, जयचंद की बातें सुनकर पृथ्वीराज भी बहुत क्रोधित हो उठे यद्यपि उन्होंने अपने आप को उस समय बहुत संभाला लेकिन उनके नेत्रों का रंग ही गुस्से से बदल गया, जयचंद ये देखकर मन ही मन संदेह करने लगा की कहीं ये ही तो पृथ्वीराज नहीं, लेकिन फिर सोचा पृथ्वीराज जैसा तेजस्वी पुरुष चन्द्रबरदाई का सेवक बन कर यहाँ क्यों आएगा, इस भ्रम में वो कुछ नहीं कहा. इसी बीच एक और घटना घटी. जयचंद की दासियाँ दरबार में पान लेकर आई उन दसियों में कर्नाटकी भी थी. कर्नाटकी ने ये प्रतिज्ञा ली थी की वो पृथ्वीराज के अलावा सभी के सामने घूंघट करेगी. वो जैसे ही पृथ्वीराज के सामने आई उसने पृथ्वीराज को पहचान लिया और वैसे ही घूंघट को हटा दिया. यह देखकर दरबार में सन्नाटा छा गया. सभों को ये यकीन होने लगा की पृथ्वीराज दरबार में चंदरबरदाई के साथ अवश्य ही मौजूद है. वे सभी एक दुसरे से काना फूसी करने लगे. जयचंद के कितने सामंतों ने तो ये कह दिया की पृथ्वीराज इनके साथ ही है इसलिए इन्हें बंदी बनाकर रख लिया जाए, परन्तु जयचंद ने सभों को रोक लिया. कवि चन्द्र बहुत ही तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे,दरबार का बदला हुआ रुख देखकर उन्होंने तुरंत कहा:-
”करि बल कलह सुमंत्री मासों,
नाहीं चहुवान सरन्न्न विचासो.
सेन सुवर कही कवि समुझाई,
अब तू कलह करन इहां आई.””
इतना कह कर कवी चन्द्र ने इशारों में उसे समझा दिया की
“ तू हमारा काम ख़राब कर रही है,क्या तू यहाँ युद्ध करवाने के लिए आई है. कवी का इशारा समझ कर कर्नाटकी ने आधा माथा ढक लिया.जब इसका कारण कर्नाटकी से पूछा गया तब उसने कहा की कवी चन्द्र पृथ्वीराज के बचपन के साथी है इसलिए मैं उनका आधा लाज रखती हूँ, इस तरह से ये बात उस समय तो दब कर रह गयी लेकिन जयचंद्र का संदेह दूर नहीं हुआ था. इसके बावजूद उसने कवी चन्द्र की बहुत खातिरदारी की, उसने नगर के पश्चिम भाग में कवी चन्द्र के रहने का प्रबंध कराया और अतिथि सत्कार किया. उसने अपने सेवकों से उनपर नज़र रखने के लिए भी भी कह दिया. उसके सेवक ने उसे कवी चन्द्र की हर सूचना जयचंद को देना शुरू कर दिया, उसने कहा की कवी चन्द्र के साथ एक विचित्र नौकर है उसके ठाठ बात, रहन सहन, शान शौकत को कवी चन्द्र भी नहीं पा सकता है. पृथ्वीराज यद्यपि नौकर बनकर वहां गए थे लेकिन जिस मकान पर वे रुके थे वहां पर उनका सम्मान अन्य सामंत एक राजा के रूप में ही कर रहे थे, वो एक ऊँचे आसन में बैठे थे, उन्हें बैठे हुए जयचंद के सेवक ने देख लिया था, और जाकर जयचंद को इसका समाचार दे दिया की कविचंद्र के साथ पृथ्वीराज भी अवश्य ही आये हुए है, जयचंद को तो पहले से ही संदेह था अब तो उसे पूरा विश्वास हो गया था. उसने अपने खास खास सैनिकों को एकत्र किया और चन्द्र बरदाई को विदाई देने के लिए हाथी, घोड़े और बहुत सा रत्न लेकर उनकी और रवाना हो गए. उसने अपने सैनिकों को समझा दिया की कवी चन्द्र का कोई भी साथी भागने नहीं पाए. जयचंद अपने साथियों के साथ चंदरबरदाई के पास पहुँच गया, थोड़ी देर तक उन्होंने शिष्टाचार की बातें की उसके बाद जयचंद ने कवी चन्द्र के सेवक बने पृथ्वीराज को पान देने का आदेश दिया, पृथ्वीराज चौहान ने उन्हें पान दिया पर बाएं हाथ से ऐसे अशिष्टता को देखकर जयचंद जल भुन गया पर ऊपर से प्रसान्नता दिखाते हुए वो कुछ नहीं बोला, इस तरह की अनेक बातें उस समय हुई, जयचंद पृथ्वीराज को गौर से देखने लगा परंतू पृथ्वीराज ने इस तरह से अपना भेष बदल रखा था की जयचंद के बार बार देखने पर भी वो पृथ्वीराज को नहीं पहचान पाया. जयचंद को विश्वास होते हुए भी उस समय कुछ न बोल पाया क्योंकि अगर वो सेवक पृथ्वीराज न निकला तब उसकी बड़ी बदनामी होती और लज्जित भी होना पड़ता, इस डर से वो चुप रहना ही उचित समझा और अपने महल लौट आया. जयचंद क्रोध से अपने मंत्री से कहने लगा की हमें पृथ्वीराज को पकड़ कर मार डालना चाहिए इससे संयोगिता की आश भी टूट जायगी और मेरा अपमान का बदला भी पूरा हो जायेगा. राजमंत्री सुमंत ने कहा की इतने बड़े प्रतापी राजा को पकड़ कर मारना कदापि संभव नहीं है और पृथ्वीराज यहाँ चंदरबरदाई के साथ क्यों आयेंगे. इस विषय में आपको चंदरबरदाई से ही सीधे सीधे पुच लेना चाहिए.वो कदापि झूठ नहीं बोलेंगे. जयचंद को अपनी मंत्री की बात अच्छी लगी क्योंकि उन्हें मालूम था की चंदरबरदाई कभी झूठ नहीं बोलते है. अतः उन्होंने चंदरबरदाई को बहुत ही आदर के साथ बुलाकर पुछा की क्या पृथ्वीराज तुम्हारे साथ है, चंदरबरदाई ने इसका जवाब बहुत ही खूबसूरती से अपनी ओजस्वनी भाषा में पृथ्वीराज की कृती कथा का वर्णन करते हुए कह दिया की वे अभी कन्नोज में ही है उनके साथ ग्यारह लाख योद्धाओं को मार गिराने वाले ग्यारह सौ सैनिक और सामंत भी है.इतना सुनते ही जयचंद ने कवी चन्द्र को विदा किया और मंत्री सुमंत को अपनी सेना को तयार करने का आदेश दे दिया

थानेश्वर का युद्ध

                                                       थानेश्वर का युद्ध:-

 घर का भेदिया सदा से ही बुरा होता है, धर्मायण के बारे में आप पहले से ही जान चुके है वो हमेशा से पृथ्वीराज की खबरे मुहम्मद गौरी तक पहुंचाता रहता था, एक बार पृथ्वीराज पानीपत के समीप शिकार खेल रहे थे, उस समय पृथ्वीराज को ये समाचार मिला की शहबुद्द्दीन फिर युद्ध के लिए चला आ रहा है. ये समाचार सुनकर पृथ्वीराज ने तुरंत ही सामंतों की सभा एकत्र की और तुरंत ही चितोड़ समर सिंह के पास ये सूचना दे दी गयी.जब तक शाहबुद्दीन आता तब तक पृथ्वीराज ने भरपूर सेना एकत्र कर ली थी. थानेश्वर का युद्ध को ही तेरायन का युद्ध भी कहते है.इस बार के युद्ध में वीरवर गोयांद्राय भी सम्मिलित थे. कई बार पृथ्वीराज से हारने के बाद गौरी इस बार एक बहुत बड़ी सेना लेकर युद्ध में आया था, वह तेज़ी से बढ़ता हुआ उस स्थान में आ पहुंचा जहाँ पृथ्वीराज शिकार के लिए अपना शिविर डाले थे. गौरी के पहुँचते ही पृथ्वीराज भी युद्ध के लिए तयार हो गए. सेना में जंगी बाजे बजने लगे पृथ्वीराज समेत सभी सामंत और राजपूत सेना युद्ध के लिए सुसज्जित हो उठे, युद्ध का हर हथियार चमकने लगा. इस बार पृथ्वीराज ने बीस हज़ार सेना लेकर मुहम्मद गौरी के एक लाख सेना का सामना किया था. सवेरा होते ही दोनों दलों की सेना युद्ध मैदान में आ पहुंची और थोड़ी ही देर में दोनों दल इस तरह एक दुसरे पर टूट पड़ी की न कोई अपना और न कोई पराया दिखने लगा, सभी एक दुसरे के खून के प्यासे हो गए. युद्ध करते करते दो यवन सरदार कई राजपूतों को काटते हुए पृथ्वीराज तक आ पहुंचे, परंतू पृथ्वीराज चौहान ने उन दोनों का मुकाबला इतनी ख़ूबसूरती से किया की क्षण भर में ही दोनों मारे गए. इसी तरह मुसलमानों के पैर उखड़ने लगे और वो एक बार फिर पीछे हटने को मजबूर होने लगे. ये देखकर गौरी स्वयं आगे बढ़ा और अपनी सेना को ललकारा, अपने स्वामी को आगे बढ़ता देखकर यवनी सेना में फिर से जोश भर आया और फिर अपने प्राणों की माया छोड़ युद्ध करने लगे. परन्तु बीस हज़ार राजपूत सेना ने इस वेग से आक्रमण किया की यवन सेना तीन तेरह होकर भाग खड़े हुए, गौरी का ललकारना कुछ काम नहीं आया, अपनी सेना को हारते देख गौरी भी वहां से भागना उचित समझा. वह घोड़े से उतर कर हाथी में बैठा ही था की वीर पहाड़राय और लोहाना अजानुबहू आकर गौरी को घेर लिए अपने स्वामी की ये दशा देखकर यवनी गौरी की रक्षा के लिए आगे आये. पृथ्वीराज के भी कई सामंत भी गौरी की तरफ बढ़े, इस जगह में बहुत भीषण युद्ध होने लगा. लोहाना अजानुबाहू ने हाथी पर ऐसा वार किया की हाथी का सर धड से अलग हो गया, गौरी वहीँ जमीन में गिर गया . मुहम्मद गौरी इस बार बहुत बुरी तरह से जख्मी हुआ था, पहाड़राय ने मुहम्मद गौरी को उठा लिया और दिल्ली ले आये पृथ्वीराज उसे दिल्ली ले आये और एक महीने के बाद उसे छोड़ दिया.मुसलमान सेना बहुत बुरी तरह हार ही गयी थी, मुहम्मद गौरी तो इस बार बच गया परन्तु यवनी सेना इस हार को कभी नहीं भूलेगी, मुसलमान सेना बहुत बुरी तरह ससे पराजित हो चुकी थी. तेरायन के युद्ध का ये तो रासो का कथन है परन्तु मुसलमान ईतिहासकार तबकात इ नसीरी का कुछ अलग ही मत है उसका कहना है की जब मुहम्मद गौरी हाथी से गिरने के बाद बुरी तरह से घायल हो गया था तब गौरी को घायल देखकर यवनी सरदार खिलजी ने गौरी को सम्भाला और युद्ध मैदान से भगा कर बाहर ले आया. परन्तु यवनी की इतनी बड़ी हार को देखकर ये बिलकुल भी नहीं लगता है की पृथ्वीराज के अनुमति के बिना मुहम्मद गौरी युद्ध मैदान से बाहर जा सकता था या बच सकता था.

कैमाश वध


                                                          कैमाश वध:-

पृथ्वीराज के पुत्र रेणुसिंह और चामुंडराय के बीच बड़ी घनिष्टता की मित्रता थी. दोनों मामा भतीजे एक दुसरे को अत्यंत ही स्नेह दृष्टि से एक दुसरे को देखते थे.यह बात कितनो को ही खटक रही थी. एक दिन अवसर देख कर पुंडीर ने ये बात पृथ्वीराज से कही की मुझे कुछ डाल में काला मालूम होता है. चामुंडराय आपके पुत्र को अपने वश में कर दिल्ली में अधिकार करना चाहता है. यह सुनकर पृथ्वीराज ने चामुंडराय से उस समय तो कुछ नहीं कहा पर पुंडीर की ये बात उन्हें ह्रदय में चुभ गयी. इसके बाद घटना वश एक दिन पृथ्वीराज का एक हाथी खुल गया. उस हाथी ने कितनो को ही मार कर जगह जगह इधर उधर घूमने लगा. एक गली में उसका सामना चामुंडराय से हो गया. चामुंडराय के लिए भागने का स्थान नहीं था इसलिए उसने अपनी तलवार निकाली और उस हाथी की सूंड को काट दिया, सूंड के कटते ही वो हाथी जमीन में कराहकर गिर गया और वहीँ मर गया. जब पृथ्वीराज को साडी घटना का मालूम हुआ तब वो चामुंडराय में बहुत क्रोधित हुए और उसे तुरंत गिरफ्तार करने के लिए गुरुराम और लोहाना अजनुबाहू को भेजा. चामुंडराय की गिरफ़्तारी को सुनकर उसके मित्रों ने पृथ्वीराज के खिलाफ युद्ध करना चाहा परन्तु स्वामी भक्त चामुंडराय ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया. चामुंडराय ने सबको समझा बुझा कर शांत किया और अपने हाथों ही अपनी पैरों में बेड़िया बाँध लिया. बस इसी समय से पृथ्वीराज की अध्य्पतन शुरू होती है. चामुंडराय को कैदकर पृथ्वीराज शिकार खेलने चले गए. इस समय सेनापति कैमाश पर दिल्ली का शाषण भार था.
एक दिन आकाश में खूब बदल छाए हुए थे वर्षा ऋतू थी, कैमाश अपने सिपाहियों के साथ कुछ जरुरी काम से राजमहल की ओर जा रहे थे. उस समय कर्नाटकी श्रींगार कर बैठी हुई वर्षा ऋतू का आनंद ले रही थी, देवयोग से कैमाश और कर्नाटकी की आंखे चार हो गयी. दोनों एक दुसरे से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे. एक तो कर्नाटकी वैश्या की पुत्री थी और दूसरा पृथ्वीराज दिल्ली में न थे, इसके बावजूद कैमाश वर्षा ऋतू में कर्नाटकी पर मुग्ध हो गए, इतना बुद्धिमान और स्वामिभक्त होने के बावजूद भी कैमाश इतना बड़ा पाप से कैसे लिपट गया इसका पता नहीं लगता जो भी हो कैमाश रात्री के समय कर्नाटकी के पास जा पहुंचा, इस समय रानी इच्छन कुमारी के मन में कुछ संदेह हो गया. उसने चुपचाप इस बात का पता लगा लिया की कैमाश और कर्नाटकी के बीच अनुचित संबंध है. उसने तुरंत ही पृथ्वीराज के पास ये समाचार अपनी दासी के द्वारा भेजवा दिया. पृथ्वीराज चुपचाप उसी समय दासी की बातें सुनकर आ गए, उन्होंने अपनी आँखों से कैमाश और कर्नाटकी को एक साथ शयन किये हुए देखा. पृथ्वीराज ने उसी समय शयन कक्ष में घुसकर कैमाश को मारा, कैमाश वही परलोक सिधार गया, परन्तु कर्नाटकी किसी तरह बाख कर वहां से भाग निकली और सीधे जयचंद के पास पहुँच गयी. पृथ्वीराज ने तुरंत ही कैमाश को वही जमीन खोदकर गाड़ दिए और वापस शिकार गृह में लौट आये, यद्यपि ये काम पृथ्वीराज ने बहुत ही गुप्त तरीकों से किया था परन्तु चंदरबरदाई को किसी तरह ये बात मालूम हो गयी थी. अगले दिन पृथ्वीराज अपने शिकार गृह से लौट आये. और इधर कैमाश को हर तरफ खोजा जाने लगा. कैमाश को कहीं नहीं देखकर सभी सामंत बड़े चिंतित हो उठे.एक दिन दरबार में बैठकर पृथ्वीराज ने सबके सामने कवी चन्द्र से पुचा की राजमंत्री कैमाश कहाँ चला गया है क्या तुम बता सकते हो, कवी चन्द्र ने पहले तो ये सवाल पूछने से मना किया परन्तु पृथ्वीराज ने जब अपनी हठ नहीं छोड़ी तब कवी चन्द्र ने सारी बातें सभी सामंतों के सामने कह दी. पृथ्वीराज को भी अपना गलती को स्वीकार करना पड़ा. सभी सामंत पृथ्वीराज से बहुत नाराज हुए, दिल्ली की प्रजा में पृथ्वीराज के प्रति आक्रोश फ़ैल गया. एक वैश्या के कारण कैमाश मारा गया ये सुनकर सारी दिल्ली नगरी शोक में डूब गयी, कैमाश की पत्नी ये संचार सुनकर बहुत शोकाकुल हुई, बहुत प्राथना कर कवी चन्द्र ने पृथ्वीराज से कैमाश की लाश उसके पत्नी को दिलवा दिया. कैमाश को मार डालने के कारण पृथ्वीराज का बड़ा अपमान हुआ. इसके कारण दिल्ली में हड़ताल मच गयी थी. पृथ्वीराज को अपनी गलती का एहसास हो गया. उन्होंने बड़े प्यार से कैमाश के पुत्र के सर पर हाथ फेरा और हंशीपुर के परगने को उसी समय उसे सौंप दिया. पृथ्वीराज ने अपने सभी प्रजा और सामंतों से अपने किये पर माफ़ी मांगी और कहा की उस समय इर्ष्या के कारण मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी. अंत में सभी सामंतों और दिल्ली के प्रजा ने उन्हें माफ़ कर दिया हड़ताल ख़त्म हो गयी और सारा काम पहले की तरह चलने लगा.

पृथ्वीराज का अल्लाह उदल के साथ युद्

                                            पृथ्वीराज का अल्लाह उदल के साथ युद्ध :-


दोनों भाई कन्नौज से चले, देवल भी साथ थी। जब वह रुठनेवाले अपनी मातृभूमि में पहुँचे तो सूखें धानों में पानी पड़ गया, टूटी हुई हिम्मतें बंध गयीं। एक लाख चन्देल इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़े थे। बहुत दिनों के बाद वह अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले। ऑंखों ने खुशी के ऑंसू बहाए। राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आया। आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पांव से लिपट गए। तीनों की आंखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया।
दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीं कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फौज का सेनापति बनाया गया। वहीं मरने-मारने के लिए सौगन्धें खाई गई। वहीं बहादुरों ने कसमें खाई कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगें। वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों को फैसला करने चले। आज किसी की ऑंखों में और चेहरे पर उदासी के चिन्ह न थे, औरतें हॅंस-हँस कर अपने प्यारों को विदा करती थीं, मर्द हँस-हँसकर स्त्रियों से अलग होते थे क्योंकि यह आखिरी बाजी है, इसे जीतना जिन्दगी और हारना मौत है।
उस जगह के पास जहॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मुकाबला हुआ। जयचंद ने भी अपनी सेना पृथ्वीराज से युद्ध करने के लिए भेज दी।दोनों की सम्मिलित सेना लगभग एक लाख की थी। इस सेना को लेकर आल्हा और उदक अपने स्वामी की ओर से युद्ध करने के लिए निकल पड़े। चंदेलों की इस विशाल सेना को देखकर पृथ्वीराज ने भी अपने सेना को चार भागों में विभक्त की।नरनाह और कान्हा समस्त चौहान सेना का सेनापति नियुक्त हुआ। और पुंडीर,लाखनसिंह, कनाक्राय कान्हा की मदद के लिए नियुक्त हुए। यद्यपि चंदेल सेना एक लाख थी, तथापि पृथ्वीराज की कुछ ऐसी धाक जमी हुई थी की सभी घबरा रहे थे।कन्हे के आंख की पट्टी खोल दी गयी, पट्टी खुलते ही वह इस वेग से आक्रमण किया की दुश्मन के पावं उखाडने लगे बहुत ही घोर युद्ध होने लगा राजा परमार पहले ही दस हज़ार सेना लेकर कालिंजर किले में भाग गए, परन्तु वीर बकुंडे आल्हा और उदल अपनी स्थान में ही डटे रहे।वे जिधर जपत्ता मरते उधर ही साफ़ कर देते। आल्हा उदल के होते हुए भी प्रथम दिवस के युद्ध में चौहान सेना ही विजयी रही। राजा परमार के किले में भाग जाने के बावजूद उसका पुत्र ब्रह्मजीत युध्क्षेत्र में मौजूद था, आल्हा ने उन्हें चले जाने के लिए कहा पर उसने कहा की युद्ध मैदान से भागना कायरों का काम है।प्रथम दिवस का युद्ध समाप्त होते होते पृथ्वीराज की सेना द्वारा जयचंद और परमार के कई सामंत समेत हजारों सिपाही भी मारे गए।
दुसरे दिन का युद्ध फिर शुरू हुआ आज उदल बीस हज़ार सैनिकों को लेकर युद्ध मैदान में आ पहुंचा, आज उसकी वीरता का प्रशंसा उसके शत्रु भी करने लगे, उदल की वीरता को देखकर चौहान सेना विचलित हो उठी, इसे देखकर पृथ्वीराज स्वयं ही युद्ध मैदान में आ उदल का सामना करने लगे बहुत देर तक युद्ध हुआ, परन्तु कोई कम न था, पृथ्वीराज के हाथों उदल बुरी तरह घी हो गया और आखिर का वो उनके हाथों मारा गया। उदल की मृत्यु का समाचार सुनकर ब्रह्मजीत और आल्हा बहुत क्रोधित हो उठे और अपनी प्राणों की ममता छोड़ कर लड़ने लगे। लड़ते लड़ते उन दोनों ने पृथ्वीराज को एक स्थान पर घेर लिया, पृथ्वीराज को घिरा देखकर कान्हा उनकी ओर अग्रसर हुआ, परन्तु आल्हा ने कान्हा पर ऐसा वार किया की वो बेहोश होकर गिर पड़ा, कान्हा को बेहोश होता देख संजम राय ने पृथ्वीराज की मदद करने आगे आये पर वो भी आल्हा की हाथों मारे गए चंदरबरदाई ने संजम राय की मृत्यु को बहुत ही गर्वित अक्षरों में लिखा है, उनके बारे में लिखा है की ऐसा दोस्त न कभी पैदा हुआ है और न ही कभी पैदा होगा, संजम राय ने पृथ्वीराज की खातिर अपने प्राण दे दिए, पृथ्वीराज के क्रोध की कोई सीमा न रही, और जल्द ही उन्होंने ब्रह्मजीत को मार गिराया, ब्रह्मजीत के मरते ही साडी चंदेल सेना में कोहराम मच गयी, चंदेल सेना तितर बितर होने लगी, पृथ्वीराज के सर में तो मानो आज खून सावार था, अपनी सेना को हारता देख कर जब उसे लगा की वो किसी भी तरह अपनी सेना की रक्षा नहीं कर सकता है तो वीर आल्हा ने जंगल में सन्यास ले लिया। और चंदेल सेना भाग खड़ी हुई। इसी बीच पांच हज़ार सेना लेकर चामुंडराय ने कालिंजर किले की ओर अग्रसर हो गया,यद्यपि राजा परमार ने अपनी रक्षा का पूरा पूरा प्रबंध कर लिया था, लेकिन चामुंड राय ने वीरता से आक्रमण कर कालिंजर किले में अपना अधिकार जमा लिया। और इस तरह महोवा और कालिंजर में पृथ्वीराज चौहान का अधिकार हुआ।

रानी मलिनहा का सलाह


                                                रानी मलिनहा का सलाह:-

अब सलाह-मशविरा होने लगा कि पृथ्वीराज से क्योंकर मुकाबिला किया जाये। रानी मलिनहा भी इस मशविरे में शरीक थीं। किसी ने कहा, महोबे के चारों तरफ एक ऊँची दीवार बनायी जाय ; कोई बोला, हम लोग महोबे को वीरान करके दक्खिन को ओर चलें। परमाल जबान से तो कुछ न कहता था, मगर समर्पण के सिवा उसे और कोई चारा न दिखाई पड़ता था। तब रानी मलिनहा खड़ी होकर बोली :
‘चन्देल वंश के राजपूतो, तुम कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या दीवार खड़ी करके तुम दुश्मन को रोक लोगे? झाडू से कहीं ऑंधी रुकती है ! तुम महोबे को वीरान करके भागने की सलाह देते हो। ऐसी कायरों जैसी सलाह औरतें दिया करती हैं। तुम्हारी सारी बहादुरी और जान पर खेलना अब कहॉँ गया? अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि चन्देलों के नाम से राजे थर्राते थे। चन्देलों की धाक बंधी हुई थी, तुमने कुछ ही सालों में सैंकड़ों मैदान जीते, तुम्हें कभी हार नहीं हुई। तुम्हारी तलवार की दमक कभी मन्द नहीं हुई। तुम अब भी वही हो, मगर तुममें अब वह पुरुषार्थ नहीं है। वह पुरुषार्थ बनाफल वंश के साथ महोबे से उठ गया। देवल देवी के रुठने से चण्डिका देवी भी हमसे रुठ गई। अब अगर कोई यह हारी हुई बाजी सम्हाल सकता है तो वह आल्हा है। वही दोनों भाई इस नाजुक वक्त में तुम्हें बचा सकते हैं। उन्हीं को मनाओ, उन्हीं को समझाओं, उन पर महोते के बहुत हक हैं। महोबे की मिट्टी और पानी से उनकी परवरिश हुई है। वह महोबे के हक कभी भूल नहीं सकते, उन्हें ईश्वर ने बल और विद्या दी है, वही इस समय विजय का बीड़ा उठा सकते हैं।’
रानी मलिनहा की बातें लोगों के दिलों में बैठ गयीं।
जगना भाट आल्हा और ऊदल को कन्नौज से लाने के लिए रवाना हुआ। यह दोनों भाई राजकुँवर लाखन के साथ शिकार खेलने जा रहे थे कि जगना ने पहुँचकर प्रणाम किया। उसके चेहरे से परेशानी और झिझक बरस रही थी। आल्हा ने घबराकर पूछा—कवीश्वर, यहॉँ कैसे भूल पड़े? महोबे में तो खैरियत है? हम गरीबों को क्योंकर याद किया?
जगना की ऑंखों में ऑंसू भर जाए, बोला—अगर खैरियत होती तो तुम्हारी शरण में क्यों आता। मुसीबत पड़ने पर ही देवताओं की याद आती है। महोबे पर इस वक्त इन्द्र का कोप छाया हुआ है। पृथ्वीराज चौहान महोबे को घेरे पड़ा है। नरसिंह और वीरसिंह तलवारों की भेंट हो चुके है। सिरकों सारा राख को ढेर हो गया। चन्देलों का राज वीरान हुआ जाता है। सारे देश में कुहराम मचा हुआ है। बड़ी मुश्किलों से एक महीने की मौहलत ली गई है और मुझे राजा परमाल ने तुम्हारे पास भेजा है। इस मुसीबत के वक्त हमारा कोई मददगार नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी किम्मत बॅंधाये। जब से तुमने महोबे से नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी हिम्मत बँधाये। जब से तुमने महोबे से नाता तोड़ा है तब से राजा परमाल के होंठों पर हँसी नहीं आई। जिस परमाल को उदास देखकर तुम बेचैन हो जाते थे उसी परमाल की ऑंखें महीनों से नींद को तरसती हैं। रानी महिलना, जिसकी गोद में तुम खेले हो, रात-दिन तुम्हारी याद में रोती रहती है। वह अपने झरोखें से कन्नैज की तरफ ऑंखें लगाये तुम्हारी राह देखा करती है। ऐ बनाफल वंश के सपूतो ! चन्देलों की नाव अब डूब रही है। चन्देलों का नाम अब मिटा जाता है। अब मौका है कि तुम तलवारे हाथ में लो। अगर इस मौके पर तुमने डूबती हुई नाव को न सम्हाला तो तुम्हें हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा क्योंकि इस नाम के साथ तुम्हारा और तुम्हारे नामी बाप का नाम भी डूब जाएगा।
आल्हा ने रुखेपन से जवाब दिया—हमें इसकी अब कुछ परवाह नहीं है। हमारा और हमारे बाप का नाम तो उसी दिन डूब गया, जब हम बेकसूर महोबे से निकाल दिए गए। महोबा मिट्टी में मिल जाय, चन्देलों को चिराग गुल हो जाय, अब हमें जरा भी परवाह नहीं है। क्या हमारी सेवाओं का यही पुरस्कार था जो हमको दिया गया? हमारे बाप ने महोबे पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये, हमने गोड़ों को हराया और चन्देलों को देवगढ़ का मालिक बना दिया। हमने यादवों से लोहा लिया और कठियार के मैदान में चन्देलों का झंडा गाड़ दिया। मैंने इन्ही हाथों से कछवाहों की बढ़ती हुई लहर को रोका। गया का मैदान हमीं ने जीता, रीवॉँ का घमण्ड हमीं ने तोड़ा। मैंने ही मेवात से खिराज लिया। हमने यह सब कुछ किया और इसका हमको यह पुरस्कार दिया गया है? मेरे बाप ने दस राजाओं को गुलामी का तौक पहनाया। मैंने परमाल की सेवा में सात बार प्राणलेवा जख्म खाए, तीन बार मौत के मुँह से निकल आया। मैने चालीस लड़ाइयॉँ लड़ी और कभी हारकर न आया। ऊदल ने सात खूनी मार्के जीते। हमने चन्देलों की बहादुरी का डंका बजा दिया। चन्देलों का नाम हमने आसमान तक पहुँचा दिया और इसके यह पुरस्कार हमको मिला है? परमाल अब क्यों उसी दगाबाज माहिल को अपनी मदद के लिए नहीं बुलाते जिसकों खुश करने के लिए मेरा देश निकाला हुआ था !
जगना ने जवाब दिया—आल्हा ! यह राजपूतों की बातें नहीं हैं। तुम्हारे बाप ने जिस राज पर प्राण न्यौछावर कर दिये वही राज अब दुश्मन के पांव तले रौंदा जा रहा है। उसी बाप के बेटे होकर भी क्या तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? वह राजपूत जो अपने मुसीबत में पड़े हुए राजा को छोड़ता है, उसके लिए नरक की आग के सिवा और कोई जगह नहीं है। तुम्हारी मातृभूमि पर बर्बादी की घटा छायी हुई हैं। तुम्हारी माऍं और बहनें दुश्मनों की आबरु लूटनेवाली निगाहों को निशाना बन रही है, क्या अब भी तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? अपने देश की यह दुर्गत देखकर भी तुम कन्नौज में चैन की नींद सो सकते हो?
देवल देवी को जगना के आने की खबर हुई। असने फौरन आल्हा को बुलाकर कहा—बेटा, पिछली बातें भूल जाओं और आज ही महोबे चलने की तैयारी करो।
आल्हा कुछ जबाव न दे सका, मगर ऊदल झुँझलाकर बोला—हम अब महोबे नहीं जा सकते। क्या तुम वह दिन भूल गये जब हम कुत्तों की तरह महोबे से निकाल दिए गए? महोबा डूबे या रहे, हमारा जी उससे भर गया, अब उसको देखने की इच्छा नहीं हे। अब कन्नौज ही हमारी मातृभूमि है।
राजपूतनी बेटे की जबान से यह पाप की बात न सुन सकी, तैश में आकर बोली—ऊदल, तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते हुए शर्म नहीं आती ? काश, ईश्वर मुझे बॉँझ ही रखता कि ऐसे बेटों की मॉँ न बनती। क्या इन्हीं बनाफल वंश के नाम पर कलंक लगानेवालों के लिए मैंने गर्भ की पीड़ा सही थी? नालायको, मेरे सामने से दूर हो जाओं। मुझे अपना मुँह न दिखाओं। तुम जसराज के बेटे नहीं हो, तुम जिसकी रान से पैदा हुए हो वह जसराज नहीं हो सकता।

यह मर्मान्तक चोट थी। शर्म से दोनों भाइयों के माथे पर पसीना आ गया। दोनों उठ खड़े हुए और बोले- माता, अब बस करो, हम ज्यादा नहीं सुन सकते, हम आज ही महोबे जायेंगे और राजा परमाल की खिदमत में अपना खून बहायेंगे। हम रणक्षेत्र में अपनी तलवारों की चमक से अपने बाप का नाम रोशन करेंगे। हम चौहान के मुकाबिले में अपनी बहादुरी के जौहर दिखायेंगे और देवल देवी के बेटों का नाम अमर कर देंगे। 

महोवा का युद्ध

                                                    महोवा का युद्ध:-

 इतिहास में महोवा का युद्ध होने का सही सही कारण नहीं मिलता है पर रासो में लिखा है की चौहान सेना मुहम्मद गौरी से सफल युद्ध जीत कर दिल्ली वापस आ रही थी, उनमे कितने ही घायल सैनिक थे, ये सेना कई रास्तों से दिल्ली वापस जा रही थी। कुछ घायल सेना की टुकरी महोवा राज्य जा पहुंची। वर्षा ऋतू थी तथा रात अँधेरी थी, पृथ्वीराज के सैनिक आश्रय पाने के उदेश्य से यहाँ वहां भटककर चंदेल राजाओं के शाही बाग़ में जा पहुंचे, पृथ्वीराज के सैनिकों को बाग़ के रक्षकों ने रोका परन्तु वे उनकी बात न मान कर राजा परमार के सरकारी महल में डेरा डालने लगे, बात बढ़ गयी। एक सैनिक ने एक रक्षक को मार डाला, बात राजा परमार तक पहुँच गयी, राजा परमार ने हरिदास बघेल को आदेश दिया की घायल सैनिकों को पकड़ कर यहाँ पेश किया जाए। चौहान सैनिकों ने हरिदास को बहुत तरह से समझाना चाहा की वे सुबह चले जायेंगे पर हरिदास एक न माना, परिणाम ये हुआ की बात ही बात में हरिदास और उसके कुछ सैनिक ने चौहान सेना पर हमला कर दिया, चौहान सेना घायल अवास्था में ही लड़ने लगी और हरिदास मारा गया, जब परमार को हरिदास के मौत की खबर मिली तब परमार ने उदल को बुला कर सभी घायल सैनिकों को मार डालने की आज्ञा दी, उदल ने बहुत समझाने की कोशिश की कि पृथ्वीराज बहुत वीर और प्रतापी है उनसे झगडा मोल न लिया जाए, पर राजा परमार के सामंत मल्हन ने आल्हा उदल की बात को जमने न दिया, राजा की आज्ञा पाकर आल्हा उदल को बाग़ में जाकर सभी घायल सैनिकों को मार डालना पड़ा। अब यहाँ पर आल्हा उदल का परिचय देना अवश्यक है। परमार देव की सेना में दसराज नामक एक सरदार था। आल्हा उदल उसी के दो पुत्र थे। इनके पिता ने कितनी ही बार युद्ध में प्रकारम दिखा कर महोवा को विजयी बनाया था। ये दोनों भाई भी बहुत परकर्मी थे, इन्हें महोवा का मशहूर लड़ाका भी कहा जाता था, कहा जाता था की आज तक पृथ्वी में ऐसा कोई पैदा नहीं हुआ है जो इन दो भाइयों को हरा सके, उनके इन पराक्रम के कारण परमार इन्हें अपने पुत्र के जैसा मानते थे। उनका इतना बल देखकर राज्य के अन्य कर्मचारी उनसे जलते थे। आल्हा उदल के पास अच्छे नस्ल के पांच घोड़े थे जो की उनके पिता की आखिरी निशानी थे, लोगो ने राजा के कान भरे की ऐसा घोडा तो केवल महोवा के राजा के पास होने चाहिए, राजा परमार ने कुछ धन के बदले वो घोडा लेना चाहा पर आल्हा ने वो घोडा उन्हें न देना चाहा, इसपर राजा के सामंतों ने फिर से राजा के कान भरने लगे और राजा ने क्रोध में आकर उन्हें राज्य से निकलवा दिया। आल्हा उदल ने वहां रहना उचित न समझा और कन्नोज में जयचंद के पास शरणागत के रूप में आ गए। जयचंद वीरों की इज्ज़त करना अच्छी तरह से जनता था उसने उन्दोनो भाइयों को पुरे सम्मान के साथ कन्नोज में रखा। जब पृथ्वीराज को यह दिल तोड़ने वाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑंधी की तरह महोबे पर चढ़ दौड़ा और सिरको, जो इलाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्देलों ने भी फौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर फौज बिन दूल्हे की बारात थी। सारी फौज तितर-बितर हो गयी। देश में तहलका मच गया। अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पॉँव फूल गये। परमाल अपने किये पर बहुत पछताया। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी। इस मामले में अगर वह इन नियमों को इतनी सख्ती से पाबन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई। उसने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आई।

संयोगिता प्रेम प्रसंग

                                                                संयोगिता प्रेम प्रसंग:-

 जिस समय ये समाचार जयचंद को मिला जयचंद क्रोध से पागल हो उठा। उसने तुरंत ही अपने मंत्री को सेना तयार करने की आज्ञा दी, यह समाचार सुनते ही चारों ओर सन्नाटा छा गया। जयचंद की रानी को जब ये समाचार मिला तब तब उसने जयचंद को बहुत तरह से समझाया और कहा की पहले संयोगिता का स्वयंबर कर ले बाद में पृथ्वीराज से युद्ध कर ले, क्योंकि इस समय पूरे भारत भर से नरेश उपस्थित है। ये समाचार संयोगिता को मालूम हुए। संयोगिता पहले से ही पृथ्वीराज की कृति सुनकर उन पर आसक्त हो रही थी, ये समाचार सुनकर वो बहुत दुखित हुई। धीरे धीरे उसके मन में पृथ्वीराज के प्रति प्रेम का बीज फूट पड़ा, और ये अंकुर कितनो ने ही देखा, जयचंद की रानी ने जयचंद को साडी बातें बता दी, जयचंद ने संयोगिता को बहुत समझाने की कोशिश की, परन्तु संयोगिता ने अपने सहेलियों से स्पष्ट कह दिया था की मैं दुसरे का वरण न करुँगी, दूती ने यह बात जयचंद से जा कही ये सुनकर जयचंद क्रोध से अधीर हो उठा। और जब स्वयंबर का समय आया तब संयोगिता ने द्वारपाल बने पृथ्वीराज के स्वर्ण प्रतिमा में स्वयबर हार डाल दिया, वहां उपस्थित सभी राजा और राजकुमार अपना अपमान समझ कर तुरंत वहां से चले गए, जयचंद ये देख कर उसकी गुस्सा का ठिकाना न रहा और उसने राजकुमारी संयोगिता को गंगा किनारे एक महल में कैद करवा दिया अब उसने पृथ्वीराज को मारकर निश्चिंत होना ही उचित समझा औ मन ही मन सोचा की पृथ्वीराज को मार डालने से संयोगिता उसके बारे में सोचना बंद कर देगी और और विवाह के लिए राजी हो जाएगी। उस समय वो ये क्रोध के कारण भूल गया था की एक राजपूत की बाला अपने प्राण दे सकती है पर अपना हठ नहीं छोड़ सकती है। पृथ्वीराज को ये सभी खबर मालूम हुए, और संयोगिता को पाने की इच्छा उनमे बलवंत हो उठी, पर तुरंत उस समय उन्होंने कुछ नहीं किया. पृथ्वीराज के इच्छानुसार यज्ञ तो विध्वंस हो ही गया था, अब कन्नोज की सेना पृथ्वीराज पर आक्रमण करने हेतु दिल्ली की ओर अग्रसर हुई, उसने दिल्ली के सीमावर्ती इलाकों में उपद्रव मचाना शुरू कर दिया और कई क्षेत्रों में अधिकार कर गावों को लूटने लगे। जब पृथ्वीराज को ये समाचार मिला तब उसकी सेना उन गावों की तरफ अग्रसर हुई और आसानी से जयचंद की सेना को मार भगाया। रासो में लिखा है की शहाबुद्दीन की माता कितनी ही बेगमों के साथ मक्के की यात्रा करने जाती थी। वे भारतवर्ष के हांसी प्रान्त से होकर जा रही थी। इस समय हान्सिपुर में नरवाहन नामक नागवंशी सरदार सूबेदार के पद पर नियुक्त था। जब उसकी सवारी दिल्ली राज्य के सरहद के पास पहुंची तब पृथ्वीराज के सामंतों ने उसे लूट लिया, पृथ्वीराज को इसकी खबर न थी, उनके सामंत ने सब धन लूटकर बेगमों को छोड़ दिया, शाहबुद्दीन की माँ गजनी लौट आई और सारा हाल शहाबुद्दीन गौरी को बता दिया, समाचार सुनकर गौरी अत्यंत क्रोधित हुआ और एक भरी सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध करने निकल पड़ा। जब सेना हांसीपुर से दस कोश की दूरी पर रह गयी तब जाकर पृथ्वीराज के सामंतों को इसकी खबर मिली, चामुंडराय ने तुरंत ही किले की घेराबंदी कर ली और कई दिनों तक युद्ध चलता रहा, परन्तु हांसी के किले में किसी भी तरह यवनी का अधिकार नहीं हो पाया एक बार फिर चौहान सेना की वीरता के कारण यवनी सेना को मुंह की खानी पड़ी। जब ये समाचार गौरी को मिला तब वह स्वयं ही एक और बड़ी सेना लेकर आया, परन्तु पृथ्वीराज और समर सिंह ने उससे युद्ध कर उसे फिर से भगा दिया।

राजसूय यज्ञ

                                               राजसूय यज्ञ:-

 अब हमलोग कन्नोज की ओर झुकते है। जब जयचंद की उम्र सोलह वर्ष की थी तब उसके यहाँ चंद्रमा के सामान दीपवती कुमारी संयोगिता ने जन्म लिया। यह कन्या बहुत ही रूपवती थी। जब संयोगिता की उम्र बारह वर्ष की हुई तब जयचन्द राजसूये यज्ञ करने का विचार कर रहा था। बारह वर्ष की उम्र में ही सब कोई संयोगिता की सुन्दरता में मुग्ध रहते थे। जयचंद भी उससे बहुत प्यार करता था। जयचंद के लाड प्यार इतना बढ़ा चढ़ा था की संयोगिता दिनों दिन हठी बनाये जा रहा था। इस हठ का परिणाम क्या होगा इसका अंदाज़ा किसी को न था। बालुकराय जयचंद के भाई थे, जयचंद ने बालुकराय से परामर्श कर राजसूय यज्ञ करना चाहा। राजसूए यज्ञ में छोटे से बड़े सभी राजाओं को निमंत्रण देना होता है, इसलिए जयचंद ने विभिन्न प्रान्तों के राजाओं को एकत्र करने के लिए निमंत्रण पत्र भेजने का विचार किया। कन्नोज राजमहल में अतिथि सत्कार और दानपुण्य के लिए सभी सामग्रियां जुटायी जाने लगी। उस समय जयचंद के मंत्री सुमंत ने बहुत तरह से समझाने की कोशिश की किये करना उचित नहीं है, आजकल यज्ञ का सुचारू रूप से संपन्न होना संभव नहीं है व्यर्थ ही बैठे बिठाये विरोध बढ़ने की सम्भावना है। परन्तु जयचंद ने अपनी मंत्री की एक बात नहीं मानी बल्कि उसने अपने मंत्री को आदेश दिया की तुम पृथ्वीराज को ये पत्र लिखो की दिल्ली राज्य पर हमारा और तुम्हारा दोनों का अधिकार है इसलिए दिल्ली का आधा क्षेत्र हमें दे दो और यज्ञ में उपस्थित होकर यज्ञ का काम पूरा करो। यह बात सहज में में नहीं होने वाली थी । बहुत कुछ समझाने पर भी जब जयचंद नहीं माना तब जयचंद के मंत्री सुमंत खुद ही पृथ्वीराज से मिलने के लिए दिल्ली चले गए। सुमंत ने पृथ्वीराज को समझाया और यह निश्चय हुआ की सभी सामंत एकत्र होकर इस विषय पर विचार करेंगे। इधर जब ये सब बातें हो रही थी तब जयचंद का भेजा हुआ एक अन्य दूत राजसूये यज्ञ का निमंत्रण लेकर आ पहुंचा, निमंत्रण पत्र में लिखा था की तुरंत यहाँ आकर जयचंद की आज्ञा अनुसार राजसूए यज्ञ का जो भी कार्य सौंपा जाए उसका पालन कीजिये, पृथ्वीराज ने दूत को बहुत तरह से समझाया की इस समय जयचंद का राजसूये यज्ञ करना किसी भी तरह से उचित नहीं है इसलिए इस काम में वे हाथ न डाले,अतः तुमलोग जाकर अपने राजा को समझाओ। दूत और सुमंत वहां से लौट आये। सुमंत ने लौट कर फिर से समझाना चाहा परन्तु कौन सुनता है, इस समय तो जयचंद के माथे होनहार स्वर थी। उसे जब मालूम हुआ की पृथ्वीराज न ही दिल्ली का आधा राज्य देना चाहता है न ही उसका अधीनता स्वीकार कर राजसूए यज्ञ में शामिल होना चाहता है तो उसके क्रोध का सीमा न रही। उसने युद्ध विद्या विरासद बालुकराय और यवनी सेना प्रमुख खुरासान खां को बुलाकर राज्य की सुरक्षा का भार सौंपा और खुद ये विचार करने लगा की पृथ्वीराज को परास्तकर जबरदस्ती कैसे यहाँ लाया जाए, पर ये काम सोचने जितना सहज नहीं था, उपर से यज्ञ का समय निकल जाने का भी डर था। इसलिए उसने आज्ञा दी की पृथ्वीराज की सोने की प्रतिमा बनवाकर द्वार पर स्थापित कर दी जाए और यज्ञ का कार्य शुरू किया जाए, यही राय स्थिर हुआ और यज्ञ की तयारियां होने लगी। यह समाचार भी पृथ्वीराज के पास पहुंचा। पृथ्वीराज की प्रतिमा द्वारपाल के स्थान में रखे जाने का समाचार सुनकर पृथ्वीराज के सभी सामंत क्रोध से अधीर हो उठे, उन्होंने अपने महाराज का अपमान होते देख क्रोध पुर्वक पृथ्वीराज से युद्ध की अनुमति मांगी, उन सबने एक स्वर से कहा की हमें कन्नोज में इसी वक़्त आक्रमण कर यज्ञ को विध्वंस कर देना चाहिए, परन्तु सेनापति कैमाश ने कहा की की अभी कन्नोज से युद्ध करने का सही अवसर नहीं है जयचंद का बल बहुत ही बढ़ा चढ़ा है और इसके साथ ही कन्नोज में छोटे बड़े नृपति भी उपस्थित है, इसलिए हमें खोखंदपुर में हमला कर जयचंद के भाई बालुकराय को मार डालना चाहिए उसके मौत से जयचंद को भरी सदमा लगेगा और यज्ञ स्वयं ही विध्वंस हो जायेगा, पृथ्वीराज ने कैमाश की बात मान लिए, और बालुकराय को मारने के लिए चल दिए। जैसे ही पृथ्वीराज की सेना ने कन्नोज में कदम रखा वैसे ही खोखंदपुर में चरों ओर हाहाकार मच गया, सारे गांव को उजाड़ा जाने लगा, जमींदार पकडे जाने लगे, चौहान सेना के इस उपद्रव से परेशान होकर प्रजा ने बालुकराय से फ़रियाद की। बलुकराय बहुत वीर था, उसने ये समाचार सुनकर पृथ्वीराज को राज्य में उपस्थित होने से पहले ही रोकना चाहा। युद्ध की तयारियां होने लगी । बलुकराय की सेना ने चौहान सेना को चारों ओर से घेर लिया, बहुत ही भयानक युद्ध होने लगा, बलुकराय इस समय अपने हाथी में बैठकर युद्ध कर रहा था, उसका हाथी ने चौहान सेना को रौंदने लगा था ये देखकर चौहान सेना थोड़ी विचलित हुई पर पृथ्वीराज चौहान ने उसके हाथी पर एकाएक ऐसा वार किया की उसका हाथी कराहकर जमीन में गिर गया, हाथी के गिरते ही चौहान सेना बलवती हो उठी और दुगुने जोश से लड़ने लगी, बालुकराय हाथी के गिरने पर स्वयं भी जमीन पर गिर पड़ा, लड़ते लड़ते उसका सामना कान्हा से हो गया, कान्हा ने बालुकराय पर ऐसा वार किया की उसका सर धड से अलग हो दूर जा गिरी, बालुक राय के मरते ही सेना विचलित हो उठी और रणक्षेत्र से भाद खड़ी हुई। इस युद्ध में बालुकराय के पांच हज़ार और पृथ्वीराज के तेरह सौ सिपाही मारे गए। संग्राम में शत्रु सेना को परास्त का पृथ्वीराज खोखंदपुर को लूटने के लिए अग्रसर हुए।और उसे लूटकर दिल्ली लौट आये। उन्होंने अपने अपमान का बदला जयचंद से इस प्रकार लिया।

दिल्ली में आक्रमण

                                                   दिल्ली में आक्रमण :-

पृथ्वीराज के शाषणकाल में दिल्ली सुख और समृद्धि से फल फूल रही थी। मुहम्मद गौरी बार बार पृथ्वीराज पर आक्रमण करता और उसे मुंह की खानी पड़ती। मुहम्मद गौरी समझ चूका था की पृथ्वीराज चौहान से सीधे सीधे नहीं जीता जा सकता है इसलिए उसने शस्त्र युद्ध के बदले कूटनीति से कार्य करना आरंभ किया,उसने अपने कुछ आदमियों को दिल्ली में भेजकर दिल्ली में जगह जगह कोहराम मचाना शुरू कर दिया। दिल्ली की सेना जब तक उनतक पहुँचति तबतक वो लोग वहां से लूटमार कर भाग जाते और फिर दूसरी जगह लूट मार करते। दिल्ली की प्रजा का सुख दिनों दिन खोता जा रहा था, और अन्दर ही अन्दर उनमे पृथ्वीराज के प्रति दुर्भावना आती जा रही थी की हमारे महाराज कुछ नहीं कर रहे है। परन्तु सच्चाई कुछ और ही थी पृथ्वीराज हर तरह से उनकी मदद कर रहे थे। अब मुहम्मद गौरी के आदमियों ने अनंगपाल के पास जाकर फरियाद की, कि आपने अपना राज्य एक गलत और अनुपयुक्त पुरुष के हाथों में दे दिया है कृपया आप अपना राज्य अपने हाथों में वापस ले ले। पृथ्वीराज तरह तरह से अपनी प्रजा को कष्ट पहुंचा रहा है, आपकी प्रजा पीड़ित हो रही है,अतः आप वापस चलकर अपना राज पाट अपने हथिन में वापस ले ले। शाहबुद्दीन के पक्षपात धर्मयन ने कुछ लोगो को अपने साथ मिला कर अनंगपाल को ऐसा दिखाया की उन्हें लगे की पृथ्वीराज की प्रजा सही में उनसे दुखी है, अनंगपाल मुहम्मद गौरी की चाल को समझ न पाए, और उन्हें उसकी बातों पर यकीन हो गया। अनाग्पाल ने पृथ्वीराज को एक पत्र लिखकर अपना राजपाट वापस माँगा और दिल्ली राज्य छोड़ देने को कहा, परन्तु हाथ में गया हुआ राजपाट इतनी आसानी से कौन दे सकता है, पृथ्वीराज को मुहम्मद की चाल का भनक मिल गयी थी अतः पृथ्वीराज ने राजपाट लौटने से साफ़ इंकार कर दिया। अनंगपाल के तपोस्वी वन जाने पर भी उनके पास पक्षपातियों की कमी न थी, अनंगपाल ने अनायास ही थोड़ी सेना बटोर ली और दिल्ली में आक्रमण कर दी, पृथ्वीराज चौहान बहुत फेर में पड़ गए, वे सोचने लगे की एक तो अनंगपाल रिश्ते में नाना लगते है और उपर से इतना बड़ा राजपाट और इतना बड़ा राज्य तो उनका ही दिया हुआ है वे उनसे युद्ध कैसे कर सकते है। अतः पृथ्वीराज ने किले का द्वार बंद करने का आदेश दे दिया और ये भी कहा की चौहान सेना एक भी सैनिक को हाथ नहीं लगाएगी, ऐसा ही हुआ, अनाग्पाल ने पृथ्वीराज के किले में हमला किया और पृथ्वीराज किले का दरवाजा बंद कर केवल आत्मरक्षा करने लगे। लाचार होकर अनंगपाल को लौट जाना पड़ा। शाहबुद्दीन गौरी अपने कार्य साधन के लिए इस समय को उपयुक्त समझा। उसने हरिद्वार में अपना एक दूत भेजकर अनंगपाल को कुछ प्रलोभन देकर अपने साथ मिला लिया। मुहम्मद गौरी के संपर्क में अनाग्पाल की बुद्धि भ्रष्ट होती ही जा रही थी। अनंगपाल ने दिल्ली के कुछ इलाकों में अपना कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। अनाग्पाल एवं उनके कुछ सैनिकों की सहायता लेकर गौरी दिल्ली में आक्रमण कर दिया। इस बार यवनी सेना को आक्रमण करता देख पृथ्वीराज चौहान शांत न रह सके उन्होंने आगे बढ़कर उन्हें दंड देना उचित समझा, उन्होंने अनंगपाल का तो ध्यान ही छोड़ दिया था। मुहम्मद गौरी को दंड देने के लिए महल का दरवाजा खोल दिया गया। इस बार ततार खां मुहम्मद गौरी का प्रमुख सेनापति बनकर आया था।पृथ्वीराज ने अपने सेना को अनंगपाल को जीवित पकर लेने की आज्ञा दी थी। बहुत ही भयानक युद्ध होने लगा। मुहम्मद गौरी के वीर सरदार मारुफ़ खां,ततार खां,खुरासान खां, आदि योद्धाओं ने अपने अपमान का बदला लेने में कोई कसर न रखी, वे इस तरह से राजपूत की सेना में टूट पड़े जैसे की भेंड के झुण्ड में मृगराज टूटता है, परन्तु जिन्हें वो भेंड समझ रहे थे वास्तव में वो शेर थे। चौहान सेना के वीरों ने मुसलमानों का इस ख़ूबसूरती से सामना किया की दुशमन अपनी शान भुलाकर अपनी औकात में आ गए,खून की नदियाँ बहने लगी, लड़ते लड़ते दोनों ओर की सेना मदमत हो गयी, परन्तु भारत में अभी मुसलमानों के शासन में विलम्ब था, पृथ्वीराज की दहाड़ और हिन्दू सेना की हुंकार सुनते ही दुश्मनों के रूह तक काँप उठे थे, वे विचलित होकर इधर उधर भागने लगे, पृथ्वीराज चौहान ने यवनी सेना में ऐसा तहलका मचाया की वो भागने को मजबूर हुए, जल्द ही मुहम्मद गौरी के सेना को हारना पड़ा। चामुंडराय ने मुहामद गौरी को पकड़ लिया और कैदखाने में डाल दिया, अनंगपाल को भी पकड़ लिया गया और पुरे सम्मान पुर्वक महल में रखा गया। पृथ्वीराज सभी कामों से निश्चिंत होकर दरबार में विराजे। सेनापति कैमाश ने मुहम्मद गौरी को पृथ्वीराज के समक्ष प्रस्तुत किया पृथ्वीराज ने बहुत कुछ समझा कर, और कुछ धन देकर उसे छोड़ दिया।
इधर अनंगपाल ने एक वर्ष तक महल में आराम से रहे। इसके बाद अनंगपाल की रानियों ने उन्हें समझाया की आप व्यर्थ ही किसी के बहकावे में आकर अपना राजपाट सब नष्ट करने में लगे है क्या आपको दिल्ली की प्रजा को देखकर लगता है की वो पृथ्वीराज से दुखी है, अगर आपको राज करने का मन था ही तो फिर पृथ्वीराज को दिल्ली का राजगद्दी क्यों सौंपा। अनाग्पाल को उसके अपनी की बातें भा गयी, उन्हें अपने किये पर पछतावा होने लगा, और उन्हें पृथ्वीराज के सामने लज्जित महसूस होने लगी। अतः अब उन्हें दिल्ली में रहना उचित नहीं लगा और फिर बदरिकाश्रम की ओर प्रस्थान कर दिए। पृथ्वीराज ने स्वयं ही उनको बदरिकाश्रम तक पुरे सम्मान से पहुंच आये। इसी समय उनके बढ़ते प्रताप के कारण कई राजाओं ने उनके समक्ष शरणागत हो रहे थे, इनमे ही दक्षिण प्रान्त के कई नृपतिगण थे, वे उपहार के रूप में पृथ्वीराज को कई चीजे देते रहते थे। उन्होंने मिलकर कर्नाटकी नाम की एक बहुत सुन्दर कन्या पृथ्वीराज को अर्पण की। कर्नाटकी भी पृथ्वीराज के जीवन में एक अनर्थ का जड़ रही थी। इसने भी भारत में विद्वेष फ़ैलाने में कम सहायता नहीं की है इसी के कारण पृथ्वीराज के घर में फूट रूपी बीज बोया जा चूका था। पृथ्वीराज चौहान ने यहाँ पर गलती कर दी थी की इस कर्नाटकी को उन्होंने अपने महल में स्थान दे दी थी। चंदरबरदाई ने कहा है की पृथ्वीराज के बढ़ते वैभव के कारण भारत के दक्षिण प्रान्त के राजा पृथ्वीराज से भय खाने लगे थे इसलिए उन्होंने आपस में सलाह कर विद्वेष फ़ैलाने वाली यह कर्नाटकी नामकी एक बड़ी रूपवती, गान विद्या में निपुण तथा विचक्षण हावभाव संपन्न रमणी पृथ्वीराज को अर्पण की। अभी कर्नाटकी की अवस्था छोटी थी अतः पृथ्वीराज ने कल्हण नाम के नटके को सौंप दिया और कह दिया की इसे गान-नृत्य की शिक्षा में निपूर्ण कर दिया जाए। वैश्या की पुत्री होने के कारण वह इन सब को आसानी से समझती थी, वह शीघ्र ही इन सब में निपुण हो गयी और मौका देखते ही कल्हण ने इसे पृथ्वीराज को सौंप दिया, पृथ्वीराज ने उसकी योवन अवस्था को देखकर महल में डाल लिया।

भानराय का पृथ्वीराज से द्वेष

                                                 भानराय का पृथ्वीराज से द्वेष:-

इधर पृथ्वीराज शाशिवृता को ले दिल्ली आ पहुंचे और वीरचन्द्र ने पृथ्वीराज से हार का बदला भानराय से लेने की ठानी। उसने भानराय के किले को चारों ओर से घेर लिया और कुछ सेना और भेजने के लिए जयचंद को पत्र लिखा। भानराय ने जब अपने को घिरा पाया तो पृथ्वीराज को पत्र लिखा की आपके कारण ही मेरे उपर इतनी बड़ी विपदा आई है इसलिए इस समय आप मेरी रक्षा कीजिये। इसी समय वीरचंद का दूत पत्र लेकर जयचंद के पास पहुंचा और पत्र के अतिरिक्त उसने जबानी ही सारा हाल जयचंद्र को बता दिया, जयचंद्र पहले से ही दिल्ली का राज सिंहासन न मिलने के कारण पृथ्वीराज से क्रोधित था अब तो वो और भी क्रोधित हो गया, उसने तुरंत ही वीरचंद को अपनी सहायता पहुंचाई।
जयचंद ने तुरंत ही अपने सभी मंत्रियों को बुलाकर ये परामर्श करने लगा की अपने सभी अधीन राजाओं और सामंतों को सभी सेना समेत कन्नोज बुला लिए जाए वे राजसूय यज्ञ करेंगे।
दुसरे ही दिन सवरे से ही कन्नोज में सेना एकत्र होने लगी। जयचंद्र के अधीन राजाओं की सेना भी उनमे आकर सम्मिलित होने लगी। उनकी सेना ध्वजा लिए आगे आगे चलने लगी और उस ध्वजा के पीछे पीछे वीर योद्धा चलने लगे। इसी समय नरवर के राजा का छोटा भाई अमरसिंह और दीर्घकाय महाबलशाली पंगुराय भी अपनी सेना लेकर जयचंद के सेना में सम्मिलित हो गया। इस तरह जयचंद की विशाल सेना भानराय और पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए चल पड़ी। जब भानराय द्वारा लिखा पत्र पृथ्वीराज को मिला तो उन्होंने भानराय की मदद करना अपना कर्तव्य समझा और तुरंत ही पृथ्वीराज ने समरसिंह को पत्र लिख कर कहा की इस समय आपको हमारी मदद अवश्य ही करनी चाहिए, समर सिंह ने सहर्ष ही पृथ्वीराज की प्राथना स्वीकार कर ली। समर सिंह को पहले से ही पता था की यवनी सेना पृथ्वीराज पर फिर से आक्रमण करना चाहती है इसलिए समरसिंह ने पृथ्वीराज से कहा की आप दिल्ली न छोड़े,आप दिल्ली की सुरक्षा के लिए वहीँ रहे और आप अपने कुछ सामंत हमारे साथ कर दे भानराय की सहायता हम कर लेंगे। पृथ्वीराज ने समरसिंह की बात मान ली। उन्होंने अपने सामंत चामुंडराय और जैतसी को समरसिंह के पास भेज दिया और स्वयं दिल्ली में रुक गए। समरसिंह ने अपने भाई अमरसिंह को भानराय की सहायता के लिए देवगिरी भेज दिया, इधर वीरचंद भानराय का किला को घेराबंदी किये बैठा था पर अबतक कुछ कर नहीं पाया था। चामुंडराय ने रात्रि के समय जाकर वहां आक्रमण कर दिया, एक तो वर्षा की अंधकारमयी रात्रि के कारण वीरचन्द्र की सेना पहले से ही विचलित हो रही रही थी, जब जल की वर्षा के साथ तीरों की वर्षा भी होने लगी तो वीरचन्द्र की सेना और भी घबरा गयी। इतना सब कुछ होने पर भी उसकी सेना ने रणक्षेत्र नहीं छोड़ा, दोनों दलों में घोर युद्ध होने लगा। इसी बीच समरसिंह की सेना लिए उसका भाई अमर सिंह युद्ध मैदान में आ गए और चामुंडराय की मदद करने लगे, युद्ध और भी भीषण होने लगा। जयचंद को हर समय का समाचार लगातार मिल रहा था, वीरचंद की सेना की हार से पहले ही वो रणक्षेत्र में पहुँच कर किला में अधिकार करना चाहता था, इसलिए वो और भी वेग से आगे बढ़ा। जब वह वहां पहुँच कर देखा तो पता चला की किला बहुत लम्बा चौड़ा और खाई से घिरा हुआ है तब उसे लाचार होकर वहीँ पड़ाव डालना पड़ा। जयचंद बहुत ही कूटनीतिज्ञ था, उसने राजनीतिज्ञ चालो द्वारा वहां के रक्षको को घूस देकर अपने साथ मिलाना चाहा पर ऐसा न हो पाया। तब उसने दुसरे ढंग की चाले चला। उसने किला में सुरंग लगाने की आज्ञा दी,परन्तु किले की खाई इतनी गहरी थी की उसकी ये चेष्टा भी निष्फल हुई, अब उसके तीनो राजनीतिज्ञ शस्त्रों साम,दाम,दंड, निष्फल हो गए थे अब आखिरी शास्त्र भेद की बरी थी, उसने एक दूत को राजा भानराय के पास भेजकर ये सन्देश भेजवा दिया की आप मेरे साथ मिल जाईये ताकि हम मिलकर पृथ्वीराज से आपके अपमान का बदला ले सके, भान राय ने अपने मंत्री से जब इसकी सलाह ली तो उसके मंत्री ने कहा की हमें जयचंद के इस चाल में नहीं आना चाहिए पृथ्वीराज से बैर करना उचित नहीं होगा अपने मंत्री की दूर दर्शिता को देखकर वो बहुत खुश हुआ और भानराय ने जयचंद के साथ मिलने से इनकार कर दिया। जब जयचंद लाचार होकर किले पर अपना अधिकार नहीं जमा पाया तब उसने देवगिरी में लूटपात मचाना शुरू कर दिया। और अनेक स्थानों में अपना शाषण फैलाना भी शुरू कर दिया, परन्तु चामुंडराय और अमरसिंह के सेना ने उसके इस कार्य में उसे तंग करने लगी। अपने राज्य से इतनी दूर आकर जयचंद वास्तव में मुसीबत में फंस गया था क्योंकि वो देवगिरी के इलाकों में अपना अधिकार तो कर लेता पर जयादा समय तक उसका उचित प्रबंध न कर पाता, इसप्रकार से चामुंड राय और अमरसिंह के द्वारा उसके कितने ही सेना मारे गए। जयचंद्र के सामंतों ने उसे ये बात समझाई की अगर आप देवगिरी में विजय प्राप्त कर भी लेते है तो आप अपना प्रभुत्व अपने राज्य से दूर होने के कारण यहाँ कायम नहीं रख पाएंगे, ये युद्ध शाशिविता के लिए थी, पृथ्वीराज तो उसे ले गए अब व्यर्थ ही नरसंहार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मंत्रियों की ये बात जयचंद के मन में भा गयी, उसने उस समय अपने सभी सेना को कन्नोज वापस चलने की आज्ञा दे दी। इस तरह से देवगिरी का युद्ध समाप्त हो गया।

शशिवृता


                                                              शशिवृता:-

खजाना निकालने का काम अभी समाप्त होते ही समर सिंह चितोड़ और पृथ्वीराज दिल्ली पधारे। इसके कुछ दिन के बाद ही पृथ्वीराज को ये खबर मिली की देवगिरी के राजा भानराय यादव की पुत्री शाशिव्रिता अनुपम सुंदरी है। भानराय अपनी कन्या का विवाह जयचंद के भतीजे वीरचंद से करवाना चाहता था, इसलिए उसने एक ब्राह्मण के द्वारा एक टिका भेज दिया था, ब्राह्मण टिका लेकर कन्नोज चला गया। परन्तु इधर शशिवृता पृथ्वीराज की प्रशंसा सुनकर मन ही मन मुग्ध हो रही थी। ये सब समाचार पृथ्वीराज को मालूम थे। जब विवाह का दिन निकट आया तो वीरचंद कन्नोज से अपनी सेना एवं सामंतों के साथ विवाह के लिए चल पड़ा। तब पृथ्वीराज भी अपनी दस हज़ार सेना और बड़े बड़े सामंतों को लेकर अपनी प्रेम पिपासा को शांत करने के लिये अग्रसर हुए। इस बार बहुत भयानक युद्ध की सम्भावना थी।
जब शाशिवृता के मन का हाल उनके माता पिता को पता चला तो उन्होंने उसे बहुत समझाना चाहा पर शाशिवृता उनकी एक न सुनी, यह देखकर देवगिरी के राजा ने अपने मंत्री से परामर्श लिए उसके मंत्री ने सुझाव दिया की आप अपनी पुत्री का विवाह वीरचंद से ही करें क्योंकि आप टिका भेजवाकर वचन दे चुके है। पर अपने पुत्री के मोह वश वे ऐसा न कर पाए, उन्होंने पृथ्वीराज को एक पत्र लिखकर ये बता दिया की शाशिवृता शिवालय में रहेगी आप उसे वहां से आकर ले जाए। जब पृथ्वीराज को ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी सेना का भार कान्हा चौहान को दे दिया और स्वम नित्ठुर राय और यादवराय के साथ देवगिरी जा कर घूमने लगे। जब पृथ्वीराज घुमते हुए किले के निचे पहुंचे तो शाशिवृता ने उन्हें देख लिया और दोनों की आंखे चार हो गयी,शाशिवृता ने अपने पिता से आज्ञा लेकर शिवालय चली गयी। उस समय शाशिवृता के साथ वीरचंद और शाशिवृता के पिता की सेना थी, इसलिए पृथ्वीराज ने बुद्धि से काम लेना उचित समझा, उन्होंने अपने सिपाहियों को योगियों के भेष में मिल जाने की आज्ञा दी यही हुआ। अस्त्रों को गुप्त रूप से छिपाते हुए पृथ्वीराज की सेना वीरचंद और भानराय के सेना में सम्मिलित हो गयी। इधर पृथ्वीराज एक सुन्दर सा घोडा लेकर मंदिर के पास आ पहुंचे, जब शाशिवृता मंदिर से पूजा कर निकली पृथ्वीराज ने शाशिवृता को सीडी पर से ही उसके करकमलों को पकड कर घोड़े पर बिठा लिया। शाशिवृता को लेकर भागते हुए वीरचंद के सेना ने पृथ्वीराज को देख लिया अब शाशिवृता के कारण एक बहुत बड़ा युद्ध होने वाला था। वीरचंद की सेना हुंकार उठी एक और जहाँ मंदिर के सामने मग्न करने वाली ध्वनि बज रही थी वहीँ वो ध्वनि युद्ध के बाजों और बिगुल में बदल गयी,जयचंद्र का भतीजा कम्धुन्ज वीरचंद केसरिया बंगा पहने, शस्त्र बंधे शिवदर्शन को आ रहा था, शाशिवृता को इस तरह हरण होते देख, उसने अपनी तलवार निकाल पृथ्वीराज की ओर झपटा, उसने सुन्दरी शाशिवृता को छीन लेना चाहा, तुरंत ही पृथ्वीराज के सामंत और सेना ने अपनी कपट भेष को फेंक कर अपने शस्त्र निकाल लिए। मंदिर के पास ही मार काट मच गयी। किसी तरह शाशिवृता को लेकर पृथ्वीराज अपने सेना के पड़ाव में आ गए। अब क्रमवध युद्ध होने लगा। बहुत भयानक युद्ध होने लगा। यद्यपि भानराय ने पृथ्वीराज को पात्र लिखकर अपनी पुत्री को उन्हें सौंपना चाहा था पर वो अपनी इज्जत बचाने के लिए वीरचंद के साथ हो लिया। संध्या होना चाहती थी पर सैनिकों में विराम न था, इसी बीच शाशिवृता का भाई मारा गया, राजा भान राय ने पृथ्वीराज से अपनी हार मानकर अपनी सेना वापस मंगवा ली, पर वीरचंद ने हार नहीं मानी। दुसरे दिन फिर युद्ध शुरू हो गया, आज के युद्ध में वीरचंद का वीर सहचर ख़ोज खवास मारा गया, उसकी मृत्यु से वीरचंद को बहुत दुःख हुआ, साथ ही उसे कुछ भय भी था इसलिए वो अपने सामंतों से विचार करने लगा की क्या करना उचित होगा। उसके सामंतों ने इस युद्ध का घोर विरोध किया और वीरचंद से कहा की एक स्त्री के लिए हज़ार सिपाहियों का बलिदान देना बिलकुल भी उचित नहीं होगा अतः इस युद्ध को यही समाप्त कर देना उचित रहेगा। वीरचंद ने उनकी बात मान ली और अपने सेना को पीछे हटने का आदेश दे दिया वीरचंद की सेना जैसे ही पीछे हटने लगी पृथ्वीराज के सेना को लगा की वो हमसे डर कर भाग रही है और पृथ्वीराज की सेना ने और भी वेग से आक्रमण कर दिया, वास्तव में वीरचंद की सेना का बल कम नहीं हुआ था, तुरंत ही उसकी सेना फिर से अपने स्थान में डट कर खड़ा हो गयी और फिर से युद्ध करने लगी, शाम होने वाली थी। वीरचंद के मस्तक में हमेशा एक चांदी का छत्र लगा रहता था, पुंडीर ने उस वीरचंद पर एक ऐसा वार किया की उसका छत्र दूर जाकर गिर गया, छत्र के गिरते ही उसकी सेना में कोलाहल मच गया वीरचन्द्र भी बहुत भयभीत हो गया, थोड़ी देर में ही रात हो गयी और युद्ध विराम हो गया। वीरचंद और पृथ्वीराज ने अपने अपने सामंतों से विचार करने लगे। पृथ्वीराज के सामंतों ने अपना मत दिया की आप शाशिवृता को लेकर दिल्ली चले जाईये हम यहाँ संभाल लेंगे पृथ्वीराज ने कहा की इसतरह हम आपलोगों को मुसीबत में छोड़ कर दिल्ली जाकर आनंन्द नहीं मना सकते है, सभों के समझाने पर भी पृथ्वीराज ने एक न सुनी अन्त में सभों को चुप होना पड़ा, सुबह होते ही युद्ध का बिगुल बज उठा, आज का युद्ध में निट्टूराय को सेनापति बनाया गया। घोर युद्ध होने लगा। पृथ्वीराज घोड़े में बैठकर इस तरह वीरचंद के सेना को काट रहे थे जैसे उनका काल उनके सामने हो, कोई भी उनके पास आने से पहले एक बार अवश्य सोच रहा था, शाम होने से पहले ही वीर पुंडीर ने वीरचंद को बंदी बना लिया पर पृथ्वीराज ने कहा की अपना काम हो गया अब उसे बंदी बनाने से कोई फायदा नहीं और पृथ्वीराज ने वीरचंद को छोड़ देने का आदेश दिया। इस तरह पृथ्वीराज ने हजारों मनुष्यों की बलिदान देकर शाशिवृता को अपना पत्नी बनाया और दिल्ली आ पहुंचे।


खजाने की खोज

                                                     खजाने की खोज :-

 रासो में लिखा है की पृथ्वीराज चौहान को एक बहुत बड़ा खजाना हाथ लगा था जिसे निकलने में समर सिंह ने पृथ्वीराज की मदद की थी। एक बार पृथ्वीराज चौहान दिल्ली से अजमेर जा रहे थे तब उन्हें खट्टू वन में एक सुन्दर सा तालाब दिखा उस तालाब में एक सुन्दर सी मूर्ति थी उस मूर्ति के माथे में लिखा था “सिर कटे धन संग्रेहे, सिर सज्जे धन जाए” यह लिखावट देखकर पृथ्वीराज को बहुत आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने चतुर मंत्री कैमाश से इसका मतलब पूछा। कैमास बहुत ही बुद्धिमान पुरुष था, उसे पता था की सायद यहाँ खजाना है और इसे निकालने में वक़्त लगेगा जिससे की कहीं गौरी फिर से कहीं अकर्मण न कर दे, उसने उसी समय इसका मतलब समझाते हुए कहा की यहाँ पर एक खजाना छुपा है अगर आप इसे निकलवाना चाहे तो रावल समरसिंह को बुलावा भेज दे, कैमाश के कहे अनुसार समरसिंह को बुलाने के लिए पुएंदीर एवं अन्य सामंतों ने अनेक प्रकार के उपहार लेकर चितोड़ गए और इधर अपने घर का भेदी धर्मयन ने अपने विश्वासी दूत से मुहम्मद गौरी को ये सन्देश भेजवा दिया की पृथ्वीराज अभी धन निकलने में लगे है इसलिए आप अभी अपना अपमान का बदला ले सकते है। इधर पुएंदीर की प्राथना के अनुसार रावल समर सिंह अपनी सेना के साथ आ पहुंचे, और ठीक इसी समय गौरी ने अपने मुख्या मुख्या सरदारों के साथ आ पहुंचा, परन्तु कैमाश की बुद्धिमता के अनुसार पहले ही प्रबंध हो चूका था, पृथ्वीराज चौहान ने आगे बढ़कर गौरी का सामना किया, क्योंकि वे पहले गौरी को परस्त कर फिर धन निकालना कहते थे, यह युद्ध नागोर के पास ही हुआ था इधर समर सिंह भी पृथ्वी की मदद करने के लिए पहुँच गए, दोनों योधाओं ने जमकर युद्ध किया और मुहम्मद गौरी को फिर से बंदी बना लिया गया। यह समाचार जब गजनी पहुंचा तब वहां से गौरी को मांगने के लिए दूत आया और इसके बहुत कुछ प्राथना करने पर पृथ्वीराज ने श्रीन्गाहर नामक एक बहुत बढ़िया हाथी और बहुत सा धन देकर गौरी को छोड़ दिया और एक बार फिर अपना वीरता का परिचय दिया।
इसके बाद ही धन निकालने का कार्य फिर से शुरू हुआ,इस बार पृथ्वीराज को बहुत बड़ा खजाना हाथ लग गया, इसका आधा अंश पृथ्वीराज चौहान ने समर सिंह को देना चाहा पर उन्होंने खुद कुछ भी न लेकर , अपने पास में से कुछ और मिलाकर सैनिकों में बंटवा दिया।

पृथा कुमारी


                                                            पृथा कुमारी :-

सोमेश्वर राज चौहान के पृथ्वीराज चौहान के अतिरिक्त पृथा नाम की एक कन्या थी। जब पृथा कुमारी विवाह के योग्य हुई तब उसका विवाह चितोड़ के अधिपति वीरबल रावल समरसिंह के साथ निश्चित हुआ। वास्तव में समर सिंह एक विचित्र प्रतिभा पूर्ण पुरुष थे, चितोड़ के मनानिये सिंहासन में बैठने के बाद भी वे सदा तपस्वी के भेष में रहते थे। महाकवि चन्द्र ने अपने रासो नामक ग्रन्थ में स्थान स्थान पर उनकी प्रशंसा की है उनके विषय में लिखा है की वे साहसी, धीरस्वाभाव और युद्ध कुशल होने के साथ साथ धर्म्प्रिये, सत्याप्रिये, और सदा शुद्ध चरित्र के थे। वे मिष्ट भाषी,और कभी किसी से कठोर व्यवहार नहीं करते थे, समर सिंह के इन्ही गुणों के कारण गोहिलोत और चौहान जाती के समस्त सैनिक और सामंत उनसे अत्यंत श्रद्धा भक्ति का भाव रखते थे। चन्द्रबरदाई ने अपने मुख से ही ये बात स्वीकार किया है की इस महाकाव्य में जो भी शाषण निति है उसका अधिक अंश महाराज समर सिंह के उपदेशों पर आधारित है।
जिस समय पृथा कुमारी के विवाह के लिए दूत के साथ साथ ही कान्हा चौहान, तथा पुरोहित गुरुराम भी वहां पहुंचे थे, उस समय समर सिंह एक व्यार्घ चर्म पर विराज कर रहे थे, उनका शांत स्वाभाव तथा वीर पुर्ण तेजोमय देखकर गुरुराम ने प्रित का विवाह स्थिर किया और समर सिंह ने भी विवाह को सादर स्वीकार कर गुरुराम को बहुत कुछ देना चाहा, पर गुरुराम ने कुछ भी नहीं लिया, समर सिंह और पृथा ने जो विवाह के बंधन में बंधा वो तो बंधा ही इधर चौहान जाती से उनका स्नेह और ही बढ़ गया, समर सिंह के निति बल, आचार बल, चरित्र बल और समर बल ने चौहान की शक्ति को और ही बढ़ा दिया इसे देखकर शत्रुओं की छाती दहल उठी और तब से पृथ्वीराज चौहान और समर सिंह दोनों हर विशाल युद्ध में एक साथ नजर आने लगे, दोनों वीरों ने एक साथ मिलकर शत्रुओं का संहार करने लगे। और पृथ्वीराज चौहान को एक और बड़ा सा सहारा मिल गया था।

माधव भाट

                                                               माधव भाट:-

अनंगपाल ने तो दिल्ली को पृथ्वीराज के हाथों में सौंप कर बदरिकाश्रम चले गए पर वो साथ ही भारत के कई राजाओं, जयचंद्र और मुहम्मद गौरी के मन द्वेष में भावना भी जला गए। दिल्ली प्राप्ति ने अन्य राजाओं के मन में सुलगती आग में घी का काम किया। जयचंद्र एक बलवान राजा था जिस समय उसे यह समाचार मिला की अनंगपाल ने दिल्ली का सिंहासन पृथ्वीराज को दे दिया है वह क्रोध से अधीर हो उठा, परन्तु अभी कुछ करने का सही अवसर नहीं है यह सोच कर वह चुप रह गया। हलाकि उसने उसी समय कुछ नहीं किया पर ये आग भीतर ही भीतर सुलगती रही और इसीका बहुत ही भयानक फल ये हुआ की भारत को 900 वर्षो तक मुसलमानों के जंजीर में बंधना पड़ा।
मुहम्मद गौरी हमेशा ही पृथ्वीराज से अपने अपमान की बदला लेने में लगा रहता था। वह पृथ्वीराज चौहान से युद्ध कर के युद्ध का अंजाम देख चूका था , और ये सोचने के लिए मजबूर हो रहा था की जब पृथ्वीराज के पास केवल अजमेर थी तब हमें इतनी बड़ी हर दे गया अब तो उसके पास दिल्ली राज्य भी आ गया अब तो उसे हराना और भी मुस्किल हो गया है। अब मुहम्मद गौरी नि कुछ चालाकी से काम लेना शुरू किया, इसके लिए उसने एक माधव भाट नाम के मनुष्य का सहारा लिया। माधव भाट बहुत ही बुद्धिमान,चतुर और कई भाषाओं का जानकर था, गौरी ने उसे पृथ्वीराज का भेद जानने के लिए भारत भेजा। भारत पहुँच कर माधवभाट ने अपनी बुद्धिमता का परिचय दिया और थोड़े ही समय में उसने पृथ्वीराज के दरबार में कितने ही सामंतों के बीच प्रियपात्र बन बैठा। पृथ्वीराज के दरबार में एक धर्मायण नाम का कार्यस्थ था, इसे ही माधव भाट ने अपनी कौशल से फंसा लिया और इसी के माध्यम से पृथ्वीराज के बहुत सारी बातें मालूम कर ली। इसी के माध्यम से वो पृथ्वीराज के समीप पहुँच सका और उनका कृपापात्र बन बैठा। राजा की कृपा दृष्टी देखकर अन्य मनुष्य भी उसे आदर की भावना से देखने लगे थोड़े ही समय में उसने पृथ्वीराज के नैतिक, व्यवहारिक, चालों की पूर्ण समीक्षा एवं अन्य सामंतों और राज्य कर्मचारियों की पूरी पूरी जानकारी एकत्र कर वो पृथ्वीराज से विदा लिया और गजनी आ गया। किसी ने उसे नहीं पहचाना की वो कौन था या फिर उसका उद्देश्य क्या था। वापस गजनी जाकर माधव भाट ने गौरी को पृथ्वीराज एवं उनके सभी वीरों की पूरी जानकारी दे दी, पृथ्वीराज की वैभव को देखकर वो जल गया। और अपने लुब्ध दृष्टी के कारण अपने बड़े बड़े सरदारों को एकत्र कर दरबार लगाया, दरबार में सभी सरदारों के सामने माधव ने पृथ्वीराज की सारी बातें कही, तर्क वितर्क करने के बाद गौरी के सामने ये बात रखा गया की ये एक हिन्दू है और इसकी बात का भरोसा नहीं करना चाहिए, संभव ही ये उनके साथ मिल कर हमें धोखा दे रहा हो इसलिए हमें किसी और आदमी को पृथ्वीराज का भेद लेने भेजना चाहिए, गौरी ने उनकी बात मान ली और मुहम्मद खां फ़क़ीर के भेष में दिल्ली जा पहुँच पृथ्वीराज के भेद जानने लगा, धर्मायन ने उसे भी सब बता दिए, और वापस आकर उसने भी वही बातें कही जो की मधाव भाट ने कही थी। अब गौरी अपने सरदारों के साथ विचार विमर्श करने लगा, सरदारों ने पृथ्वीराज के शोर्य की प्रसंसा अवश्य ही की लेकिन साथ ही साथ ये भी कहा की धर्मयां के कारण हम अवश्य ही जीतेंगे। कुछ ही दिन में मुहम्मद गौरी आक्रमण के लिए फिर से चल पड़ा। गजनी से चलकर तीनदिनों में वह नरोल के पास अपना पड़ाव डाला और वहां पर उसके अन्य सामंत और सरदार भी आकर उससे मिल गए अब गौरी एक बहुत बड़ी सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध करने चल दिया, चंदरबरदाई के अनुसार उस समय गौरी के पास दो लाख सेना थी।
जब गौरी सिंध पार कर चूका था तब पृथ्वीराज को गौरी के आक्रमण के खबर मिली, उन्होंने तुरंत ही अपने प्रधानमंत्री कैमाश से पूछा की क्या करना चाहिए तो कैमाश ने सलाह दी की दुश्मन को अपने राज्य में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए बल्कि हमें आगे बढ़कर की दुश्मन को उसके किये का दंड देना चाहिए, पृथ्वीराज और उनके अन्य सामंतों को कैमाश की ये बात अच्छी लगी। अब पृथ्वीराज ने अपनी सत्तर हज़ार सेना लेकर पानीपत नाम के एक जगह पर युद्ध के लिए जा पहुंचे, मुहम्मद गौरी की सेना भी बढ़ी चली आ रही थी तुरंत ही दोनों दलों का सामना हो गया, बहुत ही भीषण युद्ध होने लगा, धोंसो की धुनकार तथा मारू बाजे की झंकार और वीरों के हुंकार से सेना का उत्साह बराबर बढ़ता जा रहा था, दोनों ओर के वीर योद्धा अपने स्वामियों की जयजयकार करते हुए अपने प्राणों को न्योछावर करने आगे बढ़ते गए। पृथ्वीराज चौहान और उनके वीर सामंतों ने ऐसे वीरता दिखाई की यवनी के पांव उखड गए, मुहम्मद गौरी ने अपनी सेना में फिर से साहस दिलाई और फिर से युद्धक्षेत्र में ला कर खड़ा कर दियाक, पर इसका कोई फल नहीं हुआ वीर पृथ्वीराज और कान्हा जिस ओर मुड़ते यवनी सेना उधर ही साफ़ हो जाती कोई मुसलमान इनकी ओर आने का हिम्मत नहीं करता, पृथ्वीराज कितने ही सेना को अकेले ही मार गिराया, जल्द ही चामुंडराय ने मुहम्मद गौरी को बंदी बना लिया और पृथ्वीराज की जयजयकार से सारा वातावरण गूँज उठा। चन्द्रबरदाई के अनुसार ये युद्ध सन 1168 वैशाख सुदी 10 को हुआ था। इस युद्ध में पृथ्वीराज की ओर से भीम, भरावाह,श्यामदास,जस्घवल,केसरी सिंह,रणवीर सोलंकी,सागरह खिची,महत राय,हरिप्रमार,वीरध्वज,भीमसिंह बघेल,लखन सिंह, आदि सामंतों के साथ 10000 सैनिक भी मारे गए, जबकि गौरी की ओर से शेर खां,सुल्तान खां,मीर अहमद,मारुमीर,मीर्जहाँ,मीर जुम्मन,गज़नी खां,हसन खां, के साथ दस मुख्य सैनिक और 18000 सैनिक मरे गए थे।
मुहम्मद गौरी को पृथ्वीराज ने एक महीने तक कैदखाना में रखा, और मुहम्मद गौरी के पृथ्वीराज चौहान के क़दमों में गिर कर अपने जीवन की भीख मांगने पर पृथ्वीराज चौहान ने उसे कुछ धन देकर छोड़ दिया।

दिल्ली प्राप्ति

                                                               दिल्ली प्राप्ति:-

दिल्ली में शाषण तोमर वंश के राजा महाराज अनागपल के हाथों पर था, दिल्ली में प्रथम अनागपल ने तोमर वंश की स्थापना सन 733 में की और उस समय से लेकर लगभग बीस राजाओं ने दिल्ली पर शाषण किया। पृथ्वीराज के नाना दिल्ली में अंतिम तोमर वंश के शाषक थे। राजा अनंगपाल के समय की कुछ खास घटना की जानकारी नहीं मिलती है, उनके राज्य की स्थापना की भविष्यवाणी पहले ही की जा चुकी थी, आज जिस जगह पर दिल्ली बसी हुई है पहले यहाँ से दो मील दूर में दिल्ली बसी हुई थी जो की सबसे पहले महाराज युधिस्ठिर ने दिल्ली बासयी थी और समय समय इसका स्थान हर राजाओं द्वारा बदलता चला गया,चंदरबरदाई ने दिल्ली के बारे में लिखा है की जब प्रथम अनंगपाल ने दिल्ली बसाने लगे थे तब उनके कुल के पुरोहितों ने एक खूब लम्बी कील जमीन में गाड़ दी और महाराज से कहा की जबतक ये कील इस जमीन में गडी रहेगी तबतक दिल्ली में तोमर वंश का शासन रहेगा क्योंकि ये कील शेषनाग के माथे से जा लगी है, महाराज अनंगपाल को इस बात पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने वो कील निकलवा कर देखना चाहा जब वो कील निकला गया तब उस कील में सही में खून लगा था, अनंगपाल को इस बात पर बहुत दुःख हुआ की वो बहुत बड़ी बेवकूफी कर गए, फिर उन्होंने दुबारा पुरोहिंतों को बुला कर वो कील जमीन में गढ़वानी चाही पर ऐसा नहीं हो पाया, पुरोहिंतों ने काहा की महाराज मैंने आपका राज्य अचल करना चाहा था पर भगवान् की ही इच्छा नहीं थी अब तोमर वंस के बाद चौहान वंश और फिर दिल्ली में मुसलमानों का शाषन हो जायेगा।अब हम पृथ्वीराज के जीवन चरित्र की ओर झुकते है। पहले ही बता चुके है की दिल्ली के शाषक महाराज अनंगपाल की दो पुत्री थी, उन्होंने अपनी कनिष्ठ कन्या कमलावती का विवाह अजमेर के महाराज सोमेश्वर से की थी। परन्तु कुछ इतिहासकारों का मत है की पृथ्वीराज के दादा बीसलदेव ने दिल्ली में आक्रमण कर अनंगपाल को हराया था और इसलिए अनागपल ने दिल्ली और अजमेर के बीच के रिश्तों को मजबूत करने के लिए अपनी कनिष्ट पुत्री कमलावती का विवाह सोमेश्वर राज चौहान से करा दिया था। पृथ्वीराज बचपन से ही कभी अजमेर में रहते थे और कभी दिल्ली में, महाराज अनंगपाल पृथ्वीराज के गुणों पर मोहित रहते थे, उनका कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्हें अपने राज्य के लिए एक योग्य राजा की जरुरत थी, उन्होंने मन ही मन पृथ्वीराज चौहान को ही दिल्ली का महाराज मान लिया था, क्योंकि उन्हें मालूम था की ये भविष्य में एक होनहार मनुष्य होगा। और इसलिए जब वो विर्धावास्था को प्राप्त किये तब उन्होंने बदरिकाश्रम जाकर तपस्या करने के विचार से और दिल्ली का भार उचित हाथों में शौंप कर निश्चिंत होना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक दूत अजमेर भेजकर पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का सम्राट बनाने का नेवता भेजा, इसे सुनकर महाराज सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान बहुत ही खुश हुए परन्तु जयचंद्र जो की अनागपल का बड़ा नाती था उसका दिल्ली में पहले अधिकार था, इस कारण से दो राज्यों के बीच झगडा हो जाने का बहुत बड़ा खतरा भी था, इसलिए इस विषय पर विशेष विचार की आवश्यकता पड़ी। पृथ्वीराज ने अपने सभी सामंतों को एकत्र कर महाराज अनागपल का पत्र को पढ़ा गया, और खुद पृथ्वीराज चौहान और सभी सामंतों ने अपना यही मत दिया की महाराज अनागपल के इस मत को ठुकराना नहीं चाहिए और इसे अपना कर्त्तव्य समझ कर पृथ्वीराज ने दिल्ली का सिंहासन को स्वीकार कर लिया, एक ओर महाराज अनागपल जहाँ बहुत खुश हुए वहीँ दूसरी ओर जयचंद्र द्वेष की भावना में जलने लगा। “जैसी होत होत्वयता, वैसी उपजे बुद्धि” के अनुसार न तो पृथ्वीराज और न ही उनके सामंतों ने इस बात पर गौर किया इस कारण से पुरे भारतवर्ष में कितनी बड़ी विपदा आ जाएगी, और अगर हम महाराज जयचंद्र की पृथ्वीराज से द्वेष भावना को भारत का अर्ध्पतन का एक भाग कहे तो ये गलत नहीं होगा। कुछ दिन के बाद ही प्रीथ्विराज चौहान ने अपने कुछ शूरवीर सामंतों को साथ लेकर दिल्ली पहुँच गए, दिल्ली को पृथ्वीराज के महाराज बनने के अवसर पर दुल्हन की तरह सजाया गया, उनके पहुँचते ही दिल्ली में उत्सव का माहोल बन गया और सम्बंत 1168 मार्गशीर्ष शुक्ल 5 गुरुवार को पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के राज सिंघासन में बिठाये गए, दुसरे ही अजमेर और दिल्ली के संयुक्त सेना ने बड़े ही धूमधाम से पृथ्वीराज चौहान की सवारी निकली, चरों ओर “जय जय पृथ्वीराज चौहान” की ध्वनि से सारा माहोल गूँज उठा। सांयकाल के समय दरबार लगा, पृथ्वीराज राजगद्दी में विराजमान हुए, दिल्ली के प्रधान प्रधान अधिकारीयों ने दरबार में आकर जुहार की और अपनी नजरे दी। उसके दुसरे ही दिन महाराज अनंगपाल ने अपनी धर्म पत्नी के साथ बदरिकाश्रम चले गए, और पृथ्वीराज चौहान निति तथा न्यायपुर्वक दिल्ली का राज्य-शाषण करने लगे।



मुहम्मद गौरी


                                                               मुहम्मद गौरी :-

पृथ्वीराज चौहान की उम्र अब सोलह वर्ष की हो चुकी थी इस समय वे नागौर के पास अट्टूपुर में शिकार खेल खेल रहे थे। इसीसमय मीर हुसैन नाम का एक गजनवी मुसलमान जो चंदरबरदाई के अनुसार मुहम्मद गौरी का चचेरा भाई था, चित्ररेखा नाम की एक वैश्या को साथ लेकर अपने साथ लेकर आ पहुंचा बात ये थी की चित्रलेखा वैश्या होने के साथ साथ बहुत ही गुणवती थी। वह सुन्दर होने के साथ साथ विणा बाजाने, गान विद्या आदि में भी बहुत निपुण थी। शहाबुद्दीन चित्रलेखा को बहुत चाहता था। शाहबुद्दीन उतना गुनी नहीं था पर मीर हुसैन गुनी होने के साथ साथ बहुत ही सुन्दर भी था, जब शाहबुद्दीन को उसके और चित्रलेखा के प्रेमप्रसंग के बारे में पता चला तो उसने उन्हें डरा-धमकाना चाहा। इसलिए मीर हुसैन, चित्रलेखा के साथ पृथ्वीराज चौहान की अजमेर नगरी आ पहुंचा। पृथ्वीराज चौहान ने जब विदेशी को अपने नगर में देखा तो उसने अपने सामंतों से विचार विमर्श करना उचित समझा, और अंत में पृथ्वीराज ने ये फैसला किया की क्षत्रिये धर्म के अनुसार शरणागत में आये हुए को ठुकराया नहीं जाता, और उन्होंने उसे आश्रय दे दिया, अतः पृथ्वीराज ने उसे अपने सभा के दाहिने ओर स्थान दिया और उसे बहुत ही सम्मान भी दिया। चन्द्रबरदाई के अनुसार पृथ्वीराज से गौरी के बैर का कारण यही था, लेकिन अन्य इतिहासकारों की माने तो गौरी भारत केवल लूट मार करने के लिए आया था उन्होंने किसी भी वैश्या के बारे में कोई जिक्र नहीं किया है। अगर चन्द्रबरदाई का कारण सही है तो ये बात माननी पड़ेगी की एक वैश्या के कारण घोर अनर्थ हो गया। शहाबुद्दीन ने अपने भाई के पीछे एक गुप्त भेदिया भी चोर रखा था ताकि वो ये जान सके की भारतवासी उसके साथ कैसा बर्ताव करते है, उसके गुप्तचर ने देखा की पृथ्वीराज चौहान उसे बहुत इज्जत के साथ रखा हुआ है, और ये सारा हाल मुहम्मद गौरी को जाकर सुना दिया, ये सुनते ही उसने अपने सरदारों के साथ विचार करने लगा, ये सुनकर उसने अपने एक सरदार ततार खां को अजमेर भेज दिया, और कहलवा दिया की अगर तुम चित्रलेखा को लौटा देते हो तो तुम देश में आकर रह सकते हो, ततार खां ने मीर हुसैन को बहुत समझाना चाहा पर वो एक नहीं माना, अंत में वो हार मानकर पृथ्वीराज को मुहम्मद गौरी का वो पत्र दे दिया जिसमे लिखा था की “ तुम मीर हुसैन को अपने राज्य से निकाल दो वरना मैं तुम पर आक्रमण कर दूंगा, इतना सुनते ही पृथ्वीराज चौहान के साथ साथ सारे सामंत क्रोधित हो उठे और एक स्वर में कह उठे “शरणागत को त्यागना क्षात्र धर्म के विपरीत है, मुहम्मद गौरी जो चाहे कर ले हम मीर हुसैन को नहीं निकल सकते है “। आखिर का उस ततार खां को लचर होकर वहां से जाना पड़ा। वह गजनी पहुँच कर सारा हाल गौरी को सुनाया, इतना सुनते ही गौरी ने अपने सभी सरदारों को बुला भेजा और पृथ्वीराज से अपने अपमान का बदला कैसे लिया जाए इस पर विचार विमर्श होने लगा। ततार खां ने भारत पर आक्रमण करने की राय दी पर इस पर खुरासान ने ये राय दी की हम भारत को जानते नहीं है इसलिए इस समय अकर्मण करना उचित नहीं होगा क्योंकि शत्रु को जाने बगैर युद्ध करने में कोई बुद्धिमानी नहीं है, इतना सुनते ही उसके दूत भी बोल उठे की हाँ ये बात सत्य है क्योंकि पृथ्वीराज, उसके सामंत और उसके सैनिक कोई साधारण पुरुष नहीं है, गौरी कुछ देर तक शांत बैठा रहा फिर अपने दूत से बोला तुम तो भारत गए हो न तुम मुझे भारत के बारे में बताओ, दूत ने उसे भारत के बारे में बटन शुरू किया की संसार में भारत जैसा कोई दूसरा देश नहीं है, यहाँ सुन्दरता का भंडार है,यहाँ की भूमि उर्वरता से भरी पड़ी है, यहाँ में कई महल है जिसकी सुन्दरता का वर्णन मैं बोल के नहीं कर सकता है, यह देश जन, संपत्ति और वैभव से भरी पड़ी है, इसपर गौरी ने कहा की तब तो ये देश धर्म प्रचार के लिए बहुत ही सही है,इतना कह कर वो चुप हो गया, इसके बाद उस दूत ने कहा कि मैं लगभग आधा भारत घूम चूका हूँ मैंने कोई भी तीर्थ स्थल नहीं छोड़ा है, पर वहां एक बात मुझे देखने को मिली है की वहां पर हिन्दू समाज कई भागों में बंटा हुआ है ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र आदि मैं सबसे मिला पर वो सब अपने काम में अद्भुत है,अगर मैं दूसरी शब्द में कहूं तो भारत एक जन्नत है, इसपर गौरी ने कहा की तो फिर उस जन्नत से लौट क्यों आये? इसपर उस दूत ने कहा की मैं तो बस यहाँ पर आपको रास्ता दिखाने के लिए आया हूँ बिना मुश्लिम धर्म के प्रचार किये उस देश की उन्नति नहीं हो सकती है। पर ये बात है की हिन्दुओं की सकती असीमित है उन्हें पराजय नहीं किया जा सकता, वहां की प्रजा तो अपने राजा के प्रति इतनी भक्त है की उसके एक आदेश से वो जहर तक पी लेते है अतः आप हिंदू को कमजोर न समझे इतना कहकर वो दूत शांत हो गया। गौरी ने कहा की मानता हूँ की ये सब ठीक है पर हिन्दुओं में जितनी वीरता है उतनी ही उनमे फूट भी भरी पड़ी है, इसलिए मैं इन बैटन पर विचार नहीं कर सकता, विचार करने की बात तो ये है की कासिम ने केवल बीस वर्ष की उम्र में ही हिन्दुओं पर विजय प्राप्त की थी। महमूद ने भारत पर अठारह बार आक्रमण किया तब हिन्दुवों की ताकत कहाँ चली गयी थी,उनके पास ताकत अवश्य थी पर कुसंगत और कुविचार उनमे उस समय भी भरी पड़ी थी, कासिम में जब देवलपूरी पर आक्रमण किया था तब हिन्दुओं ने कहा था की जब तक उनके मंदिर पर ध्वजा लहराती होगी तबतक उन्हें कोई नहीं हरा पायेगा,कासिम ने सबसे पहले उस ध्वजा को ही काट दिया और तब हिन्दुओं ने ये सोच लिया की अब उनकी हर निश्चित है और बिना परिश्रम के ही कासिम ने उनपर विजय प्राप्त कर ली थी, इतिहास से ये साबित होता है की हिन्दोवों को हराया जा सकता है और और भारत में मुसलमान धरम प्रचार संभव है। इसके बाद गौरी ने अपने सभी सरदारों की सहमती ली और इस्लाम धर्म के प्रचार हेतु भारत पर आक्रमण करने का फैसला लिया गया।
     मुहम्मद गौरी के अन्य आक्रमण:-



परन्तु शाहबुद्दीन ने इसे अपना अपमान समझा और पृथ्वीराज चौहान से अपना बदला लेने का ठान लिया। एक बार पृथ्वीराज चौहान लट्टूवन में शिकार खेलने गए थे, जब गौरी को इसबात का पता चला तो उसने उसी समय उनपर आक्रमण कर दिया, पर उसे उस बार भी हार का सामना करना पड़ा, उस समय गौरी किसी तरह भागने में सफल हो गया था।
कुछ समय के बाद अब पृथ्वीराज नागौर मैं थे, उन्हें ये ससमाचार मिला की मुहम्मद गौरी फिर से आक्रमण करने की फिराक में है, इतना सुनते ही पृथ्वीराजने अपनी सेना एकत्र करना शुरू कर दिया, इस वक़्त पृथ्वीराज के पास केवल 8000 सैनिक थी इसलिए उन्होंने दिल्ली अपने नाना अनंगपाल जी से कहलवा कर 4000 सैनिकों को और मंगवा लिया अपनी साडी सेना को तैयार करने के बाद पृथ्वीराज सारुंड की ओर चल दिए और दुश्मन के आने का इंतज़ार करने लगे, इस समय भारत के इतिहास का काफी भीषण समय था क्योंकि विदेशी भारत पर बार बार आक्रमण कर रहे थे और केवल पृथ्वीराज ही उनका अकेला ही मुकाबला कर रहे थे, इतिहासकार के अनुसार कश्मीर के मुसलमान और पंजाब के कुछ भागो के हिन्दू भी पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध मुहम्मद गौरी का साथ दे रहे थे, एक बात तो बिलकुल ही निश्चित है की एक मात्र पृथ्वीराज चौहान के कारण ही कई वर्षों तक विदेशी भारत की ओर आंख उठा कर भी नहीं देख पाए। मुहम्मद गौरी की सेना पृथ्वीराज चौहान की ओर आगे बढती चली आ रही थी, जिसकी खबर पृथ्वीराज को पहले से थी, पृथ्वीराज ने अपना भेदिया भेज कर जानकारी मंगवानी चाही, भेदिया ने उन्हें जानकारी दी की मुहम्मद गौरी तीन लाख सेना के साथ आक्रमण करने के लिए आ रहा है, उनके सेना में गखर, काबुली,कश्मीरी,हक्शी, आदि तरह के सेना है। यद्यपि पृथ्वीराज पर गौरी ने एक बड़ी सेना के साथ हमला किया था और पृथ्वीराज के पास केवल पंद्रह हज़ार ही सेना थी, इसलिए इस बार पृथ्वीराज को गौरी के बहुत बड़ी सेना का सामना करना पड़ा था, इस बार का युद्ध बहुत ही भयानक था , यह युद्ध भी सारुंड के समीप ही हुआ था। जब मुहम्मद गौरी को ये पता चला की पृथ्वीराज के पास थोड़ी सी ही सेना है तो वह बहुत खुश हुआ, और सबसे पहले खुरासानी सेना को आक्रमण करने की आज्ञा दे दी, इस आक्रमण को बचने के लिए लोहाना अजानुबाहू अग्रसर हुई, लोहाना की वीरता से मुसलमान सेना की छक्के छुट गयी।पृथ्वीराज की मदद करने हेतु कान्हा भी नागौर से आ पहुंचा, पृथ्वीराज चौहान की वीरता और युद्ध कुशलता को देखकर दुश्मन अपने होश खोने लगे, कान्हा ने भी बड़ी वीरता दिखाई, मुसलमान सेना पृथ्वीराज,कान्हा,चन्द्र,पुय्न्दीर, की वीरता देखकर सहम गयी और कराह उठी,जो हो इस थोड़ी सी सेना ने ऐसा विचित्र काम कर दिखाया जो की असंभव सा लगता है। छोटे से हिन्दू सेना से मुसलमान सेना हताशत हो रहे थे, हिन्दू सेना यवनी सेना को छिन्न-भिन्न करते हुए मुहम्मद गौरी की ओर अग्रसर हुई, ये देखकर गौरी घोडा छोड़ हठी पर सवार हो गया और यावनी सेना चारो ओर से उशे घेर कर उशकी रक्षा करने लगे। सभी राजपूत वीर अपनी प्राणों के ममता को छोड़ कर युद्ध कर रहे थे उन्हें केवल यवनी सेना के खून की प्यास थी। मुहम्मद गौरी को हाथी में सवार देख कर जैतसी की सेना गौरी की तरफ अग्रसर हुई, वह युद्ध करते करते एक ऐसे जगह में जा पहुंचा जहाँ से निकल पाना असंभव था, वो चारो ओर से घिर चूका था, इस समय पृथ्वीराज की दृष्टी जैतसी पर पड़ गयी और उन्होंने अपना घोडा जैतसी की तरफ भगाया, उन्होंने चारों ओर से घेरे हुए यवनी सेना को अकेले ही परलोक भेज दिया, जैतसी ने भी बड़ी बहादुरी दिखायी। यवनी सेना पीछे भागने को मजबूर हो गयी,गौरी फिर से हाथी छोड़ घोडा में बैठ युद्ध करने लगा पर कोई काम न आया। छोटे से हिन्दू सेना के सामने उतनी बड़ी मुसलमान सेना पीठ दिखाने को मजबूर हुई, गौरी भी उनके साथ भागा, परन्तु पृथ्वीराज के मना करने पर भी जैतसी ने गौरी का पीछा कर उसे पकड़ लिया और पृथ्वीराज के चरणों में लाकर पटक दिया। गौरी को फिर से बंदी बना लिया गया। पृथ्वीराज ने इन सभी झमेलों से निश्चिंत होकर इच्छन कुमारी से विवाह किया और इस आनंद के मौके पर गौरी को धन देकर छोड़ दिया। परन्तु स्त्रियौ के सम्बन्ध में पृथ्वीराज की अभिलासा जैसे जैसे पोरी होती जाती वैसे वैसे और बढ़ती जा रही थी। एक वर्ष के बाद ही पृथ्वीराज इच्छन कुमारी से ट्रिप हो गए और दूसरी की आवश्यकता आ पड़ी। इसी बीच उनकी नज़र कैमाश की बहन पर जा पड़ी, और शादी करने की इच्छा जताई, कैमाश के पिता ने उनकी बातें मान ली और अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह करवा दिया साथ ही कई आदमियों की जान की रक्षा की।

                                            मुहम्मद गौरी के आक्रमण:-

दुसरे ही दिन गजनी में युद्ध की तयारियां शुरू होने लगी और मुहम्मद गौरी अपनी सेना को सुस्सज्जित कर के पृथ्वीराज चौहान की ओर युद्ध करने चल दिया। भारत में समय समय पर कई मुसलमान ने आक्रमण कर इसे लूटा है, उन्होंने भारत के कई भू-भाग में कब्ज़ा कर लिया पर वो उनकी रक्षा नहीं कर पाए, और हिन्दुओं ने उनपर फिर से अपना अधिकार कर लिया। मुहम्मद गौरी ने भी भारत के कई उत्तर के भू-भाग में अपना अधिकार जमाया और प्रभुत्व स्थापित किया। उसने 1174 में मुल्तनानगर,1178 में अनाह्वाडा, और 1182 तक सारे सिन्धु देश (वर्त्तमान में पाकिस्तान) अपना अधिकार जमा लिया था।इसके बाद उसने 1184 में लाहौर और सियाकोट, पर भी अपना अधिकार जमाया था। इसके बाद उसका सामना पृथ्वीराज से हुआ था।
दुसरे ही दिन गजनी में युद्ध की तयारियां शुरू होने लगी और मुहम्मद गौरी अपनी सेना को सुस्सज्जित कर के पृथ्वीराज चौहान की ओर युद्ध करने चल दिया। भारत में समय समय पर कई मुसलमान ने आक्रमण कर इसे लूटा है, उन्होंने भारत के कई भू-भाग में कब्ज़ा कर लिया पर वो उनकी रक्षा नहीं कर पाए, और हिन्दुओं ने उनपर फिर से अपना अधिकार कर लिया। मुहम्मद गौरी ने भी भारत के कई उत्तर के भू-भाग में अपना अधिकार जमाया और प्रभुत्व स्थापित किया। उसने 1174 में मुल्तनानगर,1178 में अनाह्वाडा, और 1182 तक सारे सिन्धु देश (वर्त्तमान में पाकिस्तान) अपना अधिकार जमा लिया था।इसके बाद उसने 1184 में लाहौर और सियाकोट, पर भी अपना अधिकार जमाया था। इसके बाद उसका सामना पृथ्वीराज से हुआ था। जब पृथ्वीराज को ये मालूम हुआ की मुहम्मद गौरी उनपर आक्रमण करने के लिए प्रस्तुत हो गृहे है तो उन्होंने अपने सभी सामंतों, कैमाश,चन्द्र, पुएंदिर, संजम राय, कान्हा को इकठा किया और अपनी सेना के साथ मुहम्मद गौरी को जवाब देने के लिए सारुंड की ओर अग्रसर हुए। मीर हुसैन को जब ये बात मालूम हुई तो उसने भी एक हज़ार सैनिक बल को जमा किया और पृथ्वीराज के सामने प्रस्तुत होकर कहा की महाराज मेरे कारण से ही आपके इस राज्य में ये विपदा आई है मैं कैसे पीछे रह सकता है, आपने मेरी असमय में मदद की थी अब मुझे अपना कर्तव्य पूरा करने दीजिये, पृथ्वीराज उनके बातों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए, और दोनों की सम्मिलित सेना आगे बढ़ने लगी। उन्होंने सारुंड नामक एक जगह में अपना पड़ाव डाल दिया। गौरी के दूतों ने भी ये समाचार उसे सुनाया और तेज़ी से सारुंड की ओर अग्रसर हुई और वहां पहुँच गयी। पृथ्वीराज चौहान को जैसे ही ये खबर मिली उनकी सेना तैयार हो गयी और “हर हर महादेव” शब्द करती हुई आगे बढ़ी, फौज के आगे बढ़ने का समाचार सुनकर मुहम्मद गौरी ने अपनी सेना को पांच भागो में विभक्त कर पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया, पृथ्वीराज चौहान ने यादवराय,महंसी,बड़ाराम गुजर, आदि को मीर हुसैन की मदद करने का आदेश दिया, और सबसे पहले मीर हुसैन का सामना गौरी के सेनापति ततार खां से हो गया, मीर हुसैन के 1500 सैनिक और ततार खां के 7000 सैनिकों ने युद्ध में हिस्सा लिया, बहुत ही घोर युद्ध हुआ, इस युद्ध में ततार खां अपने 5000 सैनिकों के साथ मारा गया और मीर हुसैन भी 300 मुसलमान और 200 हिन्दुओं के साथ मारा गया, ततार खां के मरते ही उसकी सेना भागने लगी। ततार खां को पराजित होते देख खुरासान खां की सेना आगे बढ़ी और उसका सामना पृथ्वीराज के सामंत चामुंडराय से हो गयी, चामुंड राय ने भी खुरासन खां को मार गिराया और उसके मरते ही उसकी सेना बादशाह गौरी की सेना से जा मिली, अब पृथ्वीराज की सेना ने बड़े ही वेग से आगे बढ़ी, पृथ्वीराज चौहान ने वीरता पुर्वक लड़ाई करते हुए उन मुसलमानों की तरफ बढ़ते चले गए, और अपनी तलवार से मुसलमानों को गाजर मुली की तरह काटते गए, हिन्दू सेना की वीरता देखकर उनकी दांत खट्टे होने लगे और वो भागने लगे, पृथ्वीराज चौहान की सेना उनका पीछा करने लगे, जब मुहम्मद गौरी ने अपनी सेना को पीछे भागते देखा तो वो एक जगह खड़ा होकर फिर से लड़ने की इच्छा से सैनिक एकत्र करने लगा, पर पृथ्वीराज के सेना को रोक पाना उसके बस में न थी, जल्द ही पृथ्वीराज की सेना ने उसे चारो तरफ से घेर लिया, मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज के सामने अपना सर झुकाना ही उचित समझा, और पृथ्वीराज ने “एक झुकी गर्दन पर तलवार चलाने को क्षत्रिये धर्म के विपरीत समझ कर उसे बंदी बना लिया गया। इस युद्ध में मुहम्मद गौरी के बीस हज़ार सैनिक और कितने ही सरदार मारे गए और पृथ्वीराज की तरफ से 1300 सैनिक और 5 सरदार मारे गए। पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को पांच दिनों तक दरबार में रखा और मीर हुसैन के पुत्र को उसे सौंप दिया, उन्होंने गौरी को बहुत सा धन, और फिर कभी न आक्रमण करने की प्रतिज्ञा करा कर उसे जाने दिया। चित्ररेखा मीर हुसैन की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके शव के साथ जीवित ही कब्र में गड गयी। और इस तरह से सरुन्द का युद्ध समाप्त हुआ।

परन्तु शाहबुद्दीन ने इसे अपना अपमान समझा और पृथ्वीराज चौहान से अपना बदला लेने का ठान लिया। एक बार पृथ्वीराज चौहान लट्टूवन में शिकार खेलने गए थे, जब गौरी को इसबात का पता चला तो उसने उसी समय उनपर आक्रमण कर दिया, पर उसे उस बार भी हार का सामना करना पड़ा, उस समय गौरी किसी तरह भागने में सफल हो गया था।
कुछ समय के बाद अब पृथ्वीराज नागौर मैं थे, उन्हें ये ससमाचार मिला की मुहम्मद गौरी फिर से आक्रमण करने की फिराक में है, इतना सुनते ही पृथ्वीराजने अपनी सेना एकत्र करना शुरू कर दिया, इस वक़्त पृथ्वीराज के पास केवल 8000 सैनिक थी इसलिए उन्होंने दिल्ली अपने नाना अनंगपाल जी से कहलवा कर 4000 सैनिकों को और मंगवा लिया अपनी साडी सेना को तैयार करने के बाद पृथ्वीराज सारुंड की ओर चल दिए और दुश्मन के आने का इंतज़ार करने लगे, इस समय भारत के इतिहास का काफी भीषण समय था क्योंकि विदेशी भारत पर बार बार आक्रमण कर रहे थे और केवल पृथ्वीराज ही उनका अकेला ही मुकाबला कर रहे थे, इतिहासकार के अनुसार कश्मीर के मुसलमान और पंजाब के कुछ भागो के हिन्दू भी पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध मुहम्मद गौरी का साथ दे रहे थे, एक बात तो बिलकुल ही निश्चित है की एक मात्र पृथ्वीराज चौहान के कारण ही कई वर्षों तक विदेशी भारत की ओर आंख उठा कर भी नहीं देख पाए। मुहम्मद गौरी की सेना पृथ्वीराज चौहान की ओर आगे बढती चली आ रही थी, जिसकी खबर पृथ्वीराज को पहले से थी, पृथ्वीराज ने अपना भेदिया भेज कर जानकारी मंगवानी चाही, भेदिया ने उन्हें जानकारी दी की मुहम्मद गौरी तीन लाख सेना के साथ आक्रमण करने के लिए आ रहा है, उनके सेना में गखर, काबुली,कश्मीरी,हक्शी, आदि तरह के सेना है। यद्यपि पृथ्वीराज पर गौरी ने एक बड़ी सेना के साथ हमला किया था और पृथ्वीराज के पास केवल पंद्रह हज़ार ही सेना थी, इसलिए इस बार पृथ्वीराज को गौरी के बहुत बड़ी सेना का सामना करना पड़ा था, इस बार का युद्ध बहुत ही भयानक था , यह युद्ध भी सारुंड के समीप ही हुआ था। जब मुहम्मद गौरी को ये पता चला की पृथ्वीराज के पास थोड़ी सी ही सेना है तो वह बहुत खुश हुआ, और सबसे पहले खुरासानी सेना को आक्रमण करने की आज्ञा दे दी, इस आक्रमण को बचने के लिए लोहाना अजानुबाहू अग्रसर हुई, लोहाना की वीरता से मुसलमान सेना की छक्के छुट गयी।पृथ्वीराज की मदद करने हेतु कान्हा भी नागौर से आ पहुंचा, पृथ्वीराज चौहान की वीरता और युद्ध कुशलता को देखकर दुश्मन अपने होश खोने लगे, कान्हा ने भी बड़ी वीरता दिखाई, मुसलमान सेना पृथ्वीराज,कान्हा,चन्द्र,पुय्न्दीर, की वीरता देखकर सहम गयी और कराह उठी,जो हो इस थोड़ी सी सेना ने ऐसा विचित्र काम कर दिखाया जो की असंभव सा लगता है। छोटे से हिन्दू सेना से मुसलमान सेना हताशत हो रहे थे, हिन्दू सेना यवनी सेना को छिन्न-भिन्न करते हुए मुहम्मद गौरी की ओर अग्रसर हुई, ये देखकर गौरी घोडा छोड़ हठी पर सवार हो गया और यावनी सेना चारो ओर से उशे घेर कर उशकी रक्षा करने लगे। सभी राजपूत वीर अपनी प्राणों के ममता को छोड़ कर युद्ध कर रहे थे उन्हें केवल यवनी सेना के खून की प्यास थी। मुहम्मद गौरी को हाथी में सवार देख कर जैतसी की सेना गौरी की तरफ अग्रसर हुई, वह युद्ध करते करते एक ऐसे जगह में जा पहुंचा जहाँ से निकल पाना असंभव था, वो चारो ओर से घिर चूका था, इस समय पृथ्वीराज की दृष्टी जैतसी पर पड़ गयी और उन्होंने अपना घोडा जैतसी की तरफ भगाया, उन्होंने चारों ओर से घेरे हुए यवनी सेना को अकेले ही परलोक भेज दिया, जैतसी ने भी बड़ी बहादुरी दिखायी। यवनी सेना पीछे भागने को मजबूर हो गयी,गौरी फिर से हाथी छोड़ घोडा में बैठ युद्ध करने लगा पर कोई काम न आया। छोटे से हिन्दू सेना के सामने उतनी बड़ी मुसलमान सेना पीठ दिखाने को मजबूर हुई, गौरी भी उनके साथ भागा, परन्तु पृथ्वीराज के मना करने पर भी जैतसी ने गौरी का पीछा कर उसे पकड़ लिया और पृथ्वीराज के चरणों में लाकर पटक दिया। गौरी को फिर से बंदी बना लिया गया। पृथ्वीराज ने इन सभी झमेलों से निश्चिंत होकर इच्छन कुमारी से विवाह किया और इस आनंद के मौके पर गौरी को धन देकर छोड़ दिया। परन्तु स्त्रियौ के सम्बन्ध में पृथ्वीराज की अभिलासा जैसे जैसे पोरी होती जाती वैसे वैसे और बढ़ती जा रही थी। एक वर्ष के बाद ही पृथ्वीराज इच्छन कुमारी से ट्रिप हो गए और दूसरी की आवश्यकता आ पड़ी। इसी बीच उनकी नज़र कैमाश की बहन पर जा पड़ी, और शादी करने की इच्छा जताई, कैमाश के पिता ने उनकी बातें मान ली और अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह करवा दिया साथ ही कई आदमियों की जान की रक्षा की।